तू त आन्हर हवे रे बटोहिया, बहंगी छठ मैया के जाय

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विकास राय

vikash_raiभगवान सूर्य जिन्हें आदित्य भी कहा जाता है. यह एक मात्र प्रत्यक्ष देवता हैं. इनकी रोशनी से ही प्रकृति में जीवन चक्र चलता है. इनकी किरणों से ही धरती में प्राण का संचार होता है और फल-फूल, अनाज इत्यादि का निर्माण होता है. यही वर्षा को आकर्षित करते हैं और ऋतु चक्र को चलाते हैं. भगवान सूर्य की इस अपार कृपा के लिए सूर्य, षष्ठी या छठ व्रत इन्ही आदित्य सूर्य भगवान को समर्पित है.

इतिहास में छठ की परंपरा

छठ पर्व की परम्परा की शुरुआत किस तरह हुर्इ, इसके लिए जब इतिहास की तरफ देखते हैं तो इसके संबंध में कर्इ पौराणिक और लोक कथाएं प्रचलित हैं. रामायण काल में सीता ने गंगा तट पर छठ पूजा की थी. महाभारत काल में कुंती ने भी सरस्वती नदी के तट पर सूर्य पूजा की थी. जिसके परिणाम स्वरूप उन्हें पांडवों जैसे विख्यात पुत्रों का सुख मिला था. बल्कि सूर्य पुत्र कर्ण को लोग आज भी याद करते हैं. इसके उपरांत द्रौपदी ने भी हस्तिनापुर से निकलकर गडगंगा में छठ पूजा की थी. वे अपने परिजनों के अच्छे स्वास्थ्य और लम्बी उम्र के लिए नियमित सूर्य पूजा करती थी. छठ पूजा का संबंध हठयोग से भी है. जिसमें बिना भोजन ग्रहण किए हुए लगातार पानी में खड़ा रहना पड़ता है. जिससे शरीर के अशुद्ध जीवाणु परास्त हो जाते हैं.

मान्यता है कि छठ देवी सूर्य देव की बहन हैं और उन्हीं को प्रसन्न करने के लिए जीवन के महत्वपूर्ण अवयवों में सूर्य और जल की महत्ता को मानते हुए इन्हें साक्षी मानकर भगवान सूर्य की आराधना और उनका धन्यवाद करते हुए मां गंगा-यमुना या किसी भी पवित्र नदी या तालाब के किनारे छठ पूजन किया जाता है.

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सनातन संस्कृति और छठ पूजा

हमारे देश भारत में सूर्य की उपासना वैदिक काल से ही होती आ रही है. सूर्य और उनकी उपासना की चर्चा विष्णु पुराण, भागवत पुराण, वैवर्त पुराण  में विस्तार से की गर्इ है. मध्य काल तक छठ सूर्य उपासना को व्यवस्थित पर्व के रूप में मनाया जाने लगा. सृष्टि और पालन शक्ति के कारण सूर्य की उपासना सभ्यता के विकास के साथ विभिन्न स्थानों पर अलग-अलग रूप में प्रारंम्भ हो गया. पौराणिक काल में सूर्य को आरोग्य देवता भी माना जाने लगा. इसकी “शुरुआत कार्तिक “शुक्ल  चतुर्थी को और समाप्ति “शुक्ल सप्तमी को होती है.

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छठ पूजा में कोशी भरने की मान्यता है अगर कोई अपने किसी अभिष्ट के लिए छठ मां से मनौती करता है तो वह पूरी करने के लिए कोशी भरी जाती है. इसके लिए छठ पूजन के साथ -साथ गन्ने के बारह पेड़ से एक समूह बना कर उसके नीचे एक मिट्टी का बड़ा घड़ा…जिस पर छह दिए होते हैं..देवकरी में रखे जाते हैं…और बाद में इसी प्रक्रिया से नदी के किनारे पूजा की जाती है…नदी किनारे गन्ने का एक समूह बना कर छत्र बनाया जाता है..उसके नीचे पूजा का सारा सामान रखा जाता है…कोशी की इस अवसर पर काफी मान्यता है..उसके बारे में एक गीत गाया जाता है जिसमें बताया गया है..कि छठ मां को कोशी कितनी प्यारी है.

रात छठिया मईया गवनै अईली

आज छठिया मईया कहवा बिलम्बली

बिलम्बली – बिलम्बली कवन राम के अंगना

जोड़ा कोशियवा भरत रहे जहवां जोड़ा नारियल धईल रहे जहंवा

उंखिया के खम्बवा गड़ल रहे तहवां

चार दिनों के इस पर्व में आखिरी दो दिन ही ज्यादा चहल-पहल वाले होते हैं. आज के शहरीकरण के कारण लोग अपने मूल प्रांतों से अन्य शहरों में प्रवास करने लगे हैं. छठ पूजा पर अनेक प्रवासी अपने-अपने गांव-घरों को जाने की कोशिश तो करते हैं लेकिन प्रत्येक परिवार के लिए यह संभव नहीं हो पाता है. इसके अलावा हर बड़े महानगर में बहती नदी का भी अभाव है. जैसे दिल्ली में यमुना किनारे छठ पूजा के समय विशाल जनसमूह एकत्रित होता है. इसी तरह देश के अन्य हिस्से जैसे मुंबई, पुणे, बेंगलुरु और चेन्नै में भी लोग छठ पूजा के लिए उत्साहित होकर नदी और तालाबों की खोज करते है. वैसे तो चलते हुए पानी में ही छठ मनाने की परंपरा है लेकिन लोगों की भीड़ को देखते हुए आज-कल शहरों में छोटी-छोटी बावड़ी और तालाबों में लोग छठी मईया की पूजा करते है.

कहने का तात्पर्य है कि छठी मईया की पूजा आराधना पवित्र मन और भाव से करने से हमारी सभी मनोकामनाएं पूर्ण हो जाती है.

निर्धन जानेला ई धनवान जानेला,

महिमा छठ मईया के अपार ई जहां जानेला.