रानीगंज बाजार के दुर्गोत्सव में है फ्रीडम फ्लेवर

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कई मायने में पूरे हिंदुस्तान के लिए नजीर है रानीगंज बाजार का दुर्गोत्सव. ठीक आजादी के साल हुई थी इसकी शुरुआत. यहां हिंदुओं ने virendra_nath_mishraदुर्गात्सव और मुसलमानों ने ताजिया रखकर मुहर्रम मनाने की शुरुआत ठीक उसी जगह साथ साथ की थी. और बीते 70 सालों से यह परम्परा जस की तस चली आ रही है. कई बार ऐसे मौके आए जब दोनों त्योहार साथ साथ पड़े. उसका भी समाधान यहां लोगों ने चुटकी में ढूंढ लिया. बुढ़ापे की दहलीज पर कदम रखने से पहले ही यहां के आयोजक कमेटी मेम्बर युवाओं के हाथ में कमान सौंप स्वतः एडवाइजर की भूमिका में आ जाते हैं. पेश है बैरिया से वीरेंद्र नाथ मिश्र की रिपोर्ट

पूर्वी बलिया का सबसे बड़ा बाजार है रानीगंज. हर साल दशहरा के मौके पर, विशेष तौर पर सप्तमी से दशमी तक यहां मेला लगता है. यहां के दुर्गोत्सव को इस बार इंद्रदेव की नजर लग गई. ऐन मौके पर उन्होंने सर्जिकल स्ट्राइक कर दी. पूजा पण्डाल गीले हो गए, कीचड़ से लबालब रास्ते परेशानी का सबब बन गए. जाहिर है ऐसे में शनिवार को मेला घुमने लोगबाग कम ही निकले.

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कई लिहाज से पूरे भारत के लिए नजीर है रानीगंज बाजार का सार्वजनिन दुर्गोत्सव
कई लिहाज से पूरे भारत के लिए नजीर है रानीगंज बाजार का सार्वजनिन दुर्गोत्सव

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यहां का मेला कई मायने में ऐतिहासिक है. देश आजाद होने पर ही अर्थात साल 1947 में ही यहां के सार्वजनिन दुर्गोत्सव की शुरुआत हुई थी. उसके प्रेरणा स्रोत या यूं कह लीजिए प्रवर्तक बने थे स्वतंत्रता सेनानी व्यवसायी काली प्रसाद जी. उन्हें स्थानीय युवाओं ने तब हर संभव सहयोग किया था. रानीगंज बाजार में चौक से पूरब बंगाल की तर्ज देवी दुर्गा की प्रतिमा रखकर पूजन का श्रीगणेश हुआ था. तभी से यहां के लोगों के बीच यहां की बड़ी दुर्गा का पूजन मशहूर हो गया. लोग आजादी के उत्साह से वैसे ही लबरेज थे, दुर्गोत्सव उनके जोश को और बढ़ा रहा था. यहां के पुरनिया बताते हैं कि आसपास के गांव जवार ही नहीं, पूरे द्वाबा से लोग यहां के मेले में लुत्फ उठाने पहुंचे थे. एक उल्लेखनीय बात और है. इसी तर्ज पर उसी साल से यहां मुहर्रम के मौके पर ठीक उसी जगह ताजिया रखने की भी शुरुआत हुई थी. हिन्दू व मुसलमान दोनों ने मिल कर बड़े उत्साह के साथ न सिर्फ त्योहार मनाया, बल्कि एक दूसरे की हर संभव मदद भी की.

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यहां के मेले में जलेबी संग सब्जी खाने के लिए टूट पड़ते है लोग, मगर इस बार मौसम की बेरुखी आड़े आ गई
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मूर्तियों की साज सज्जा व विसर्जन में सहभागिता मुसलमानों ने की तो ताजिया में कन्धा देने व उसके रास्ते पर जल चढ़ाने का काम हिन्दू परिवारों ने किया. इसके बाद तो यह यहां की परम्परा बन गई. मालूम हो कि 70वे साल में भी यह परम्परा जस की तस है. आयोजन कमेटियों के युवा प्रौढ़ावस्था की दहलीज पर पहुंचते ही विरासत युवा पीढ़ी को सौप कर मार्ग दर्शन का जिम्मा संभाल लेते हैं. गौरतलब है कि बीच बीच मे कई बार दुर्गा पूजा व मुहर्रम एक साथ पड़े. एक दूसरे की पीठ से सटे पूजा पण्डाल व ताजिया स्थल, ताजिया जाने का मार्ग जैसे विषयों पर प्रशासन के हाथ पाव जरूर फूले, लेकिन परम्परा शान्तिपूर्ण निर्बाध चली आ रही है. अब बाजार में दर्जनों पूजा पण्डाल लगने लगे हैं. लेकिन बडी दुर्गाजी के पण्डाल की शोभा व मर्यादा पूरे इलाके मे बरकरार है. दूसरी विशेषता यहां के खांटी बलियाटिक जायका सब्जी व जलेबी खाने की है. इस बार मेले के पहले दिन दुकानें तो सजीं, लेकिन दर्शनार्थी अपेक्षा के मुताबिक नहीं आए.

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