सब कुछ है, मगर 27 टोले वाला सिताबदियारा नदारद है

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जयप्रकाशनगर (बलिया) से लवकुश सिंह

LAVKUSH_SINGHआरा, छपरा, बलिया तीन जिलों और यूपी-बिहार दो राज्‍यों में बंटा है लोकनायक जेपी का गांव सिताबदियारा. सिताबदियारे के समाज में 45 साल पहले और आज में काफी बदलाव आ चुका है. सब कुछ है, मगर 27 टोले वाला सिताबदियारा नदारद है. ऐसा कहना है बैंक अधिकारी व इसके बाद पत्रकार से राजनेता बने राज्यसभा सांसद हरिवंश का. हरिवंश सिताबदियारा के ही मूल निवासी हैं.

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हरिवंश (राज्यसभा सांसद)
हरिवंश (राज्यसभा सांसद)

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तब घाघरा उस पार रिविलगंज ही सबसे बड़ा शहर लगता था

हरिवंश जब 45 साल पहले और आज की तुलना करते हुए बयां करते हैं, तो अनायस ही लगता है कि लक्ष्‍मी की खनक के चलते संबंधों की वह मजबूती अब कमजोर हो चली है. वे सिताबदियारा के 45 साल पूर्व की तस्‍वीर को सामने रख कर बताते हैं कि तब दो नदियों का घेरा, विशाल दरियाव (नदियों का पाट) पार करना होता था. घाघरा उस पार रिविलगंज ही सबसे बड़ा शहर लगता था. न सड़क, न अस्पताल, न बिजली, न फ़ोन. चार-पांच महीने पानी में ही डूबे-घिरे रहना पड़ता था. बाढ़ के वे दिन, वेग से चलती हवाओं से उठती लहरें, दरवाजे पर बंधी नावों से यात्रा के वे दिन, आज भी मन को रोमांचक स्थिति में ला देते हैं. तब कितना कठिन था जीवन, अज्ञेय के भाव में कहें  तो भोक्ता की पीड़ा, सिर्फ वही जान सकता है. वरदान रहा कि उस वीरान जंगल या दीयर या दोआब (दो नदियों के बीच का गांव) में जेपी पैदा हो गए.

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चंद्रशेखर ने उद्धार शुरू किया, बिहार वाले हिस्से की सूरत नीतीश ने बदली

चंद्रशेखर जी ने उसका उद्धार आरंभ किया. बिहार के हिस्से के गांवों की सूरत बदली नीतीश कुमार ने. अब बिजली है, अस्‍पताल है, सड़कें हैं,  किंतु 27 टोले वाला वह सिताबदियारा नहीं रहा, जो 45 साल पहले था. वह गरीबी भी अब नहीं दिखती, हालांकि अभी भी कई टोलों के लोगों की पूरी की पूरी जमीन कटाव में चली गयी है. खेतिहर भूमिहीन में बदल गये हैं, फ़िर भी वह पुरानी गरीबी नहीं दिखती, पर वह पुराना गांव जो 45 वर्षों पहले छूटा, वह भी अब नहीं दिखता. कई छोटे-मोटे बाजार खुल-बन गये हैं. गांवों की भदेस भाषा में इसे चट्टी कहते हैं. इन्हें देख कर या इनके बारे में जान कर एक कहावत याद आती है कि मुक्ति की राह बाजारों से तय होती है. ये चट्टी या मामूली बाजार, शहरीकरण की आरंभिक सीढ़ियां हैं. ये सीढ़ियां, गांवों के पुराने ताने-बाने को छिन्न-भिन्न और नष्ट कर देती हैं.

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या यूं कह लें राजनीति भी अब धंधा बन चुकी है

तुरहा-तुरहिन, कुम्हार, हजाम, धोबी, छोटे दुकानदार धीरे-धीरे गायब या नष्‍ट होते गए. ‘इंटरप्रेन्योरशिप’ (‘उद्यमशीलता’) के नये-नये उदाहरण भी मिलते हैं. आर्थिक गतिविधियां बढ़ने-पनपने लगती हैं. बिजली, पानी सप्लाई, फ़ोन टॉवर वगैरह से नये छोटे रोजगार पनपने लगते हैं. सड़कों से ठेका मिलता है. सरकारी स्कीमों के प्रभाव व काम के असर दीखते हैं. इस तरह एक फ़सल पर जीवन जीनेवालों के लिए अनेक नये अवसर उपजे हैं. इससे समृद्धि आयी है या समृद्धि की जगह कहें कि वह भयावह गरीबी-दुर्दिन अब नहीं रही, तो शायद ज्यादा सही अभिव्यक्ति होगी. राजनीति भी धंधा बन गयी है. हर दल के सक्रिय कार्यकर्ताओं के अपने रुतबे-हैसियत हैं. या यूं कह लें समृद्धि ने काफी कुछ बदल दिया है. राजनीति भी अब धंधा बन चुकी है.

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गांव में देसी शराब, कुटीर उद्योग बन गयी है

ग्राम पंचायतों की गतिविधियों से सूरत बदल रही है. सत्ता और पैसे के वे नये केंद्र बन गये हैं, पर अपने गांव को इस बार देखते हुए अंगरेज कवि ओलिवर गोल्ड स्मिथ की कविता की एक पंक्ति याद आयी  ‘वेल्थ एक्युमुलेट्स एंड मेन डिके’ (संपन्नता आती है, पर मनुष्य का क्षय होता है) यह 1770 में लिखी गयी थी. तब गरीब इंग्लैंड का औद्योगिकीकरण हो रहा था. वह गरीबी का चोला उतार कर संपन्न बन रहा था. यही हाल अपने गांव का भी पाया. गांव में देसी शराब, कुटीर उद्योग बन गयी है.

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तब दू घइला ताड़ी दियरा में उतरा तो बवाल हो गया था

पहले 1970 में रिविलगंज से एक आदमी दो घड़ा (दू घइला) ताड़ी लेकर दीयर में उतरा. हमारे चाचा चंदिका बाबू (जेपी के सहयोगी) ने संबंधित टोलों के बुजुर्गो को खबर (बिहार के इलाके) करायी, वह ताड़ी जस की तस, फ़िर घाट पर वापस गयी. इस हिदायत के साथ कि दोबारा इस पार न आए. आज शराब के बाजार का विस्तार हो गया है. दशकों तक उस घटना की चर्चा हम सुनते रहे. एक बुजुर्ग या नैतिक इंसान का पूरा गांव आदर करता. पंचों का फ़ैसला सर्वमान्य होता. आज बाप को बेटा सुनने के लिए तैयार नहीं. पहले एक बुजुर्ग की अवहेलना 27 गांव नहीं कर पाता था. नैतिक बंधन की यह बाड़, गरीबी का चोला उतारते गांव ने तोड़ दिया है.

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तब भजन कीर्तन में मुक्ति तलाशते थे, अब शराब और ठेकेदारी में

पहले रामायण, कीत्तर्न, भजन, सत्संग, साधु-संत सेवा में लोग मुक्ति तलाशते थे, अब शराब, ठेकेदारी और राजनीति मुक्ति के नये आयाम हैं. सबसे बड़ा फ़र्क रिश्तों-संबंधों में आया है. बचपन में कई विधवाओं को देखा है, अकेले झोपड़ी डाल कर रहते-गुजारा करते. लोग-समाज ऐसे लोगों का ध्यान रखते थे. पूरे सम्मान-स्वाभिमान के साथ ऐसी गरीब विधवाओं को जीते देखा है. बूढ़े-बुजुर्गों का सम्मान था. वे बोझ नहीं थे. हमारे घर में, हमारे किसान पिता अधिकतर बाहर रहते. अभिभावक की भूमिका में थे, घर के बुजुर्ग नौकर भिखारी भाई (यादव)  किसी में साहस नहीं था, एक शब्द उनकी अवहेलना करे. वह गार्जियन थे. वैसे भी तब पिता लोग अपने बेटों का ध्यान नहीं, भतीजों को खुला स्नेह अधिक करते थे. हमसे भी चाचा लोग (एक चाचा, जिन्हें हम लाला कहते थे, वह संत थे ) यानी, मैं, मेरी बीवी, मेरे बच्चों का दौर नहीं आया था. कैसे-कैसे उदार चरित्र और बड़े मन के लोग थे. रासबिहारी भईया, राधामोहन बाबा,ओस्ताद बाबा, श्यामा बाबा, चंद्रमन यादव, दाई, गांव के अन्य बड़े बुजुर्ग, जिनसे रक्त का रिश्ता नहीं, पर वे अपने थे. कई अनपढ़ थे, पर ज्ञानियों से अधिक मानवीय-समझदार, निस्वार्थ स्नेह, मदद और अपनत्व की वह छायावाला गांव कहां खो गया, अब अधिसंख्य पढ़े-लिखे हैं, पर रिश्तों में हिसाब-किताब है.

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गांवों-घरों के छीजते आत्मकेंद्रित संबंधों पर प्रभुनाथ बाबू ने लिखी थी कविता

बिहार के पूर्व मंत्री एवं अर्थशास्त्री प्रो. प्रभुनाथ सिंह पारिवारिक मित्र थे. हर वर्ष संक्रांति में वह भी मेरे घर (गांव) आते. भोजपुरी के जाने-माने लेखक कवि भी थे. दस वर्षों पहले उन्होंने गांवों-घरों के छीजते आत्मकेंद्रित संबंधों को लेकर एक लंबी कविता लिखी थी. अत्यंत मार्मिक, ‘कहां गइल मोर गांव रे’ चौदहवीं की चांदनी में बचपन में देखे-निहारे उस गांव को इस बार भी चौदहवीं के चांद की रोशनी में ही देखा. लक्ष्मी की खनक ने उस गरीबी को मलिन किया है, पर गांव का वह पुराना मन, मिजाज और संबंध भी दरक गया है. उन्‍होंने कहा कि गांव के युवाओं के सिर जिम्‍मेदारी है कि वे आगे आएं, बड़े बुर्जुगों का सम्‍मान करें, और स्‍थापित करने का प्रयास करें अपने सिताबदियारा का वही पुराना समाज, वही एकता के सूत्र में बंधा गांव, जहां जन्‍म लेने वाले बच्‍चों को भी गर्व महसूस हो सके.

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