चाय लेंगे या पानी?

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आये दिन अखबारों-पत्रिकाओं में “बिन पानी सब सून“ शीर्षक से श्रृंखलायें प्रकाशित होती रहती हैं। आंकड़ों के साथ कि ‘जलस्तर कब-कितना नीचे गया है‘,‘पानी की जरूरत और बर्बादी‘ आदि। इस वजह से घर-गृहस्थी भी प्रभावित होने लगी है। लाजिमी है-पानी तो जीवन का आधार ही है। रसोई के लिए पानी,पीने के लिए पानी,नहाने के लिए पानी। और भी कितनी जरूरतें पूरी करता है यह पानी। इसका मूल्यांकन किया जाये या मतदान कराया जाये तो यह यह जीवन-साथी को भी पीछे छोड़ देगा। शक है,उनकी जमानत भी बच पाये। अब तो आने वाले मेहमान से भी मेजबान पूछेंगे-‘पानी लेंगे या चाय? ‘
आम तौर पर लोग यही कहते हैं: ‘चाय-पानी हो जाये।‘ अब तो लगता है कि द्वन्द्व समास के उदाहरण की सूची से इसे हटा दिया जा सकता है। शायद ‘चाय-पानी‘ की जगह ‘चाय या पानी‘ ले ले। वैसे तो विद्वानों के मुताबिक देश और काल के परिवर्तन से धर्म अधर्म और नीति अनीति हो जाते हैं। जाहिर है परिवर्तन के सिद्धान्त पर अमल करें तो यह भी कैसे अछूता रह सकता है!
पहले जब कोई मेहमान आते थे तो टेबल पर प्लेट में स्नैक्स, एक जग पानी और गिलास रखते थे। इसके बाद चाय लायी जाती थी। स्नैक्स तो ठीक है,मगर पानी पीने से आनेवाले की हरारत-थकान दूर होती थी। इसके बाद चाय से उनमें स्फूर्ति आ जाती थी। बचपन में पानी के महत्व का आभास नहीं होता था। प्यास लगती थी तो पानी पी लेते थे। माता-पिता के बार-बार पानी पीने के निर्देश को भी अनसुना कर देते थे। उनके तेवर तल्ख होने पर पी लेते थे। उस दौरान उनकी ओर ऐसे देखते थे मानो पानी पीकर हमने उनपर कोई बड़ा अहसान कर दिया हो।
इन हालात में तो नहाने का भी कोटा तय कर दिया जाये तो कुछ गलत नहीं होगा। जिस तरह सर्दी के दिनों में अनेक लोग साप्ताहिक स्नान नियम भी बना लेते हैं। उसी तरह साल के 365 दिनों के लिए भी इसे या सप्ताह में तीन दिन स्नान करना तय हो जाये तो आश्चर्य नहीं। वैसे मानव जाति किसी भी हाल में खुश नहीं रहता है। उसे हर मौसम से शिकायत ही होती है।
अब तो आलम यह है कि पानी की किल्लत ने परम्परा को भी ग्रस लिया है। अब तो चाय ही पानी से सस्ती लगने लगी है। चाय-पत्ती और चीनी पहले भी खरीदे जाते थे और आज भी खरीदे जाते हैं। पानी तो बिना मोल के और प्रचूर मात्रा में उपलब्ध होता था। अब तो पानी भी बिकने लगा है। हो न हो यह जनवितरण प्रणाली वाली (पीडीएस) दुकान पर भी मिलने लगे ! जाहिर है अब जब कोई अतिथि आयेंगे तो मेजबान उनसे बेहिचक पूछेंगे: ‘चाय लेंगे या पानी? ‘ अगर चाय से ही काम चल जाये तो पानी व्यर्थ खर्चें। चाय में डाले गये पानी से ही काम चल जाये। कई जगह तो केवल चाय पत्ती-दूध-चीनी वाली ही मिलती है।
आजकल सरकार की ओर से ‘बेटी बचाओ-बेटी पढ़ाओ‘, ‘पानी बचाओ-धरती बचाओ‘ आदि मुहिम चलायी जा रही हैं। चलिये,इस कदम से किसी मुहिम को तो बल मिलेगा। अगर अधिसूचना जारी कर दी जाये कि “ अतिथि,पानी साथ लाओगे“ तो आश्चर्य नहीं।