बलिया में चेन पुलिंग करने वालों का वश चले तो ट्रेन को कार की तरह अपने अपने घर तक ले जाते

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ई. एसडी ओझा
लोकल ट्रेन का सफर

मैं सतीशचंद्र डिग्री कालेज, बलिया में जब पढ़ रहा था, तब सप्ताह में एक बार शनिवार के दिन अपने गांव जाया करता था. शनिवार के दिन शाम को लोकल ट्रेन पकड़ता, जिसे इंटरसिटी कहते थे. यह ट्रेन बलिया से छपरा जाती थी. इस ट्रेन में तिल रखने की जगह नहीं होती थी. यदि अाप पहले आ गये तो ठीक, अन्यथा खड़े होने की जगह भी तलाशना “कान का बाला तलाशना” जैसे होता था. पहले आओ ,पहले पाओ की तर्ज पर हीं सीटें मिला करती थीं.

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2/3 वर्ग मीटर की जगह में 14-18 आदमी की खड़े रूप में सहारा दे देना इस ट्रेन की खासियत थी. कहां लोग ज्यादा उतरेंगे, कहां लोग ज्यादा चढ़ेंगे – इस बात का इल्म हमें पहले से होता था. इसलिए हम मौके की नजाकत के अनुसार अपना स्थान बदलते रहते थे. चढ़ते हुए लोग उतरने वाली सवारियों को बिल्कुल तरजीह नहीं देते थे. चढ़ेंगे साथ साथ, उतरेंगे साथ साथ -दोनों बातें सम्भव नहीं थीं. इसलिए उतरते लोग जब जान हथेली का सौदा कर प्लेट फार्म पर उतर जाते थे, तो उनके होठों पर एक विजयी मुस्कान चिपकी होती थी- वर जीत लिया रे देकर कानी.

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अगर आपका सफर दूर का है तो आपका गेट पर खड़ा होना अक्लमंदी नहीं होगी. पीछे से उतरने वाली भीड़ आपको बार बार हर स्टेशन पर उतारती रहेगी. इसलिए आप डिब्बे के मध्य में अपना डेरा डालें रहें. यदि आपके दोनों पैर जमीन पर टिक गये हों तो आपको ऊपर के हैंडल पकड़ने की आवश्यक्ता नहीं होगी. भीड़ हीं आपको सम्भाले रहेगी. हर तरह की गंध से आपका वास्ता पड़ेगा. उबकाई युक्त बगलों से आती दुर्गंध का आपको सामना करना पड़ सकता है. कभी कभी, ‘यहां कहाँ सज्जन के बासा ‘ की तर्ज पर इत्र की खूश्बू भी आ सकती है. किसी किसी पसीने से सुगंध भी आपको मिल सकती है.

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अब इत्र भी मलो तो खूश्बू नहीं आती ,
वो दिन हवा हुए जब पसीना भी गुलाब था.

खड़े होने से खिड़कियां भी बंद हो जाती थीं. न कोई हवा ,न कोई बयार तो पसीना आना तो लाजिमी है. पसीने की संस्कृति पहले माथे पर चुहचुहाती है. फिर नाक पर बहते हुए होठों को अपने खारे पन का स्वाद चखाती है. कई बार होंठ आपका पसीना दुसरे का होता है, फिर भी किसी को कोई एतराज नहीं. एक दुसरे पर गिरते पड़ते एक दूसरे को सहारा दिए जाते हैं. ‘वसुधैव कुटुम्बकम ‘का इससे बढ़ियां दृष्टांत अन्यत्र नहीं मिलेगा.

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कई बार लोग डिब्बे के अंदर आने की बजाय गेट से लटक जाते थे. उनका कहना था कि इस तरह से वे गर्मी व भीड़ से निजात पा जाते हैं. मैंने भी यह फार्मूला अपनाने की एक बार कोशिश की. बलिया से बांसडीह आते आते लगा कि बस आज की शाम तक हीं जिन्दगी है. वो तो भला हो चेन पूलरों का कि बांसडीह आने से पहले हीं चेन पुलिंग कर दी. मैंने चेन पूलरों को लाख लाख धन्यवाद देते हुए डिब्बे में आ गया. इंटरसिटी के साथ चेन पुलिंग आम है. छाता हाल्ट स्टेशन से यह शुरू हो जाता है और नारायनगढ़ तक बदस्तूर जारी रहता है.

चेन पुलिंग रेवती से पहले गायघाट गांव के सामने भी होती है. गायघाट के लड़के वहां उतरते पर बलिया पालिटेक्नीक के लेक्चरर हरिहर सिंह वहां नहीं उतरते. वे यथोचित स्टेशन रेवती पर हीं उतरते. फिर पैदल चलकर वापस गायघाट आते . आज के दौर में भी कुछ लोग वसूलों को नहीं छोड़ते.

चेन पुलिंग पर लोगों का कहना था कि यदि रेलवे ट्रैक की बंदिश नहीं होती तो लोग गाड़ी को कार की तरह अपने अपने घरों को ले जाते. कई बार ट्रेन के ड्राइवर जान बूझकर हर चेन पुलिंग जोन में ट्रेन धीमी कर देते ताकि लोग उतर जाएं और ट्रेन को रोकना न पड़े. एक बार ट्रेन रूक जाती है तो दुबारा प्रेशर बनाने में वक्त लगता है. इस तरह दस से पंद्रह मिनट जाया हो जाता था. कई बार लोग धीमी गति से संतोष कर लेते थे, उतर जाते थे. कई बार नहीं मानते थे. उनके लिए चेन पुलिंग अंतिम विकल्प होता था. धीमी गति पर महिलाएं व बच्चे नहीं उतर पाते थे. गायघाट गांव के भगवत सिंह रेलवे ड्राइवर से रिटायर्ड हुए थे. गाहे ब गाहे वे बलिया आते रहते थे. जब लौटते थे तो इंजन में ड्राइवरों के साथ बैठते थे. लोग निराश हो जाते थे. आज भगवत सिंह हैं, आज चेन पुलिंग सम्भव नहीं.

भगवत सिंह को इतनी महारत हासिल थी कि लाख कुछ कीजिए पर चेन पुलिंग हो नहीं पाती थी. मात्र दिखाने के लिए वे ट्रेन धीरे करते थे. लोगों की अास उस समय निराशा में बदल जाती थी, जब ट्रेन फिर से फुल स्पीड पकड़ लेती थी. रेवती आकर भगवत सिंह “अब तुम्हारे हवाले वतन साथियों ” की तर्ज पर नियमित ड्राइवरों से हाथ मिलाकर उतर जाते थे. रेवती के बाद से फिर चेन पुलिंग कामयाब होने लगती थी.

ट्रेन की छत पर भी लोग बैठते थे. मैंने भी ट्रेन की छत पर बैठने का लुत्फ लिया है. एक बार सहतवार व रेवती के बीच त्रिकालपुर में चेन पुलिंग की वजह से ट्रेन रूकी हुई थी. अंधेरी रात में हमने पेड़ों पर जुगनू चमकने का अद्भुत नजारा देखा. लगता था कि हजारों लड़ियां बिजली की एक निश्चित अंतराल पर जल बुझ रहीं हैं. यदि मैं डिब्बे में होता तो इस नैसर्गिक सौंदर्य से मरहूम रह जाता. कुछ लोग ट्रेन की छत पर स्टंट भी करते. चलती गाड़ी से एक डिब्बे से दूसरे डिब्बे पर कूद जाते. कभी धर्मेंद्र ने शोले व बर्निंग ट्रेन की छत पर काफी कूद फांद मचाई थी. शाहरूख खान ने भी चलती ट्रेन की छत पर नाच नाच कर ‘चल छैंया, चल छैंया ‘ गीत समूह में गाया था. किंतु इनके लिए सुरक्षा के पुख्ता इंतजाम होता है.

एक बार मांझी पुल पर बहुत बड़ी दुर्घटना घट गई थी. बहुत से लोग ट्रेन की छत पर बैठे थे. पुल के ऊपर के गॉर्डर छत से थोड़ी दूर पर हीं थे. इन गर्डरों से टकरा कर बहुत से लोग सरयू नदी में गिर गये थे. केवल एक आदमी बचा था. वह छत पर लम्बलेट हो गया था. अब RPF के जवान मांझी रेलवे स्टेशन से पहले हीं सुनिश्चित कर लेते हैं कि कोई छत पर चढ़ा न रहे.

इतने मुश्किलों से गुजरने के बाद मेरा स्टेशन दल छपरा आता . एक सवा घंटे की यात्रा दो ढाई घंटे में पूरी होती. दल छपरा से पैदल दो किमी पैदल चल अपने गांव ‘नवकागांव ‘ पहुंचते. मां का कहना होता, आज तुमने मेरा पाव भर खून जलाया है. मेहरिया की डांट अलग से मिलती. मेहरिया तो मेहरिया है, बेशक कानी हीं क्यों न हो? वह तो डांटेगी हीं.

कहेन कि,
कानि मेहरिया कहां पावा ?

कहेन कि,
इनहूं खातिर तो बन बन धावा है,
तब जाकर भईया इनको पावा है.

(फेसबुक कोठार से)