कौने खोंतवा में लुकइलू आहि रे बालम चिरई…..

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प्रीति करीं अइसे जइसे, कटहर क लासा !
दयानंद पांडेय

(वरिष्ठ पत्रकार और उपन्यासकार)

मोहम्मद खलील की गायकी की मादकता, मिठास और उस की मांसलता की महक लोगों के मन में अभी भी तारी है. उन की मिसरी सी मीठी और खनकदार आवाज़ आज भी मन में जस की तस बसी बैठी है. क्योंकि प्रीति में ना धोखाेधड़ी, प्यार में न झांसा, प्रीति करीं अइसे जइसे कटहर क लासा जैसे गीत गाने वाले मोहम्मद खलील ने सचमुच अपनी गायकी से न धोखाधड़ी की, न अपने श्रोताओं को झांसा दिया. लेकिन उन की अमर गायकी आज हम से बिछड़ी-बिछड़ी सी है. उन का एक भी कैसेट, सी. डी. या डी. वी. डी. बाज़ार में ढूंढे नहीं मिलता. तब जब कि भोजपुरी गायकी में वह लता मंगेशकर के पाए के गायक हैं. फिर भी चूंकि बाज़ार में उतर कर बाज़ारु जुगाड़बाज़ी से वह परहेज़ करते रहे सो अगर उन की ही ज़ुबान में कहें तो उन की गायकी किसी खोंतवा में लुका गई है.

छलकल गगरिया मोर निरमोहिया   मोहम्मद ख़लील की आवाज़ में

आकाशवाणी के कुछ केंद्रों में उन के गाए कुछ बचे-खुचे गाने बीते दशक तक कभी-कभार बज जाते थे तो लोग झूम जाते थे. अब तो जाने आकाशवाणी में भी उन के टेप बचे रह गए हैं कि मिटा दिए गए हैं, कोई नहीं जानता. लेकिन मोहम्मद खलील जब गाते थे तो शारदा मां की स्तुति में एक गीत गाते थे कि, ‘माई मोरे गीतिया में अस रस भरि द, जगवा क झूमे जवानी !’ पर क्या कीजिएगा, उन्हीं का गाया एक गीत है कि, ‘अंगुरी में डंसले बिया नगिनिया हो, हे ननदो दियना जरा द !’ इसी गीत का एक रुपक है कि, ‘एक त मरीला हम नागिन के डसला से, दूसरे सतावति आ सेजरिया हे, हे ननदो दियना जरा द !’ भोजपुरी गायकी में ऐसा बिंब और ऐसा रुपक दुर्लभ है. प्रेम का यह कंट्रास्ट दुर्लभ है. तो मोहम्म्मद खलील की गायकी की मादकता का यह अंतर्विरोध ही है कि लोग उन को सुनना चाहते हैं और आज उन की सी.डी., या डी.वी.डी. बाज़ार में उपलब्ध नहीं है. दियना बारने वाली कोई ननदी भी नहीं है जो उन के गाए गीतों को संरक्षित कर उन्हें लोगों को सुलभ करवा कर उन की गायकी का दियना बुझने से बचा सके. उन की गायकी के बिरवे को सहेज सके. मोहम्मद खलील की गायकी का संघर्ष और इस त्रासदी का छंद बांचना आसान नहीं है.

कौने खोंतवा में लुकइलू आहि रे बालम चिरई  –  मोहम्मद ख़लील की आवाज़ में

मोहम्मद खलील बलिया के थे. रेलवे में चतुर्थ श्रेणी की नौकरी करते थे. गाने बजाने का शौक था सो बलिया में ही झंकार नाम से एक पार्टी बनाई. बलिया के ही पंडित सीताराम चतुर्वेदी उन की गायकी से बहुत प्रभावित हुए तो उन्हों ने अपना एक गीत छलकल गगरिया मोर निरमोहिया गाने के लिए दिया. खलील ने इसे दिल खोल कर गाया. फिर तो खलील का डंका बज गया. 1965 में खलील का ट्रांसफ़र बलिया से इलाहाबाद हो गया. इलाहाबाद में भोजपुरी भाषियों को कोई पूछने वाला नहीं था. उन की तादाद भी कम थी. लेकिन इलाहाबाद में भी खलील भोजपुरी गाते रहे. उन के बच्चों से लोग पूछते कि यह अइली, गइली क्या गाते हैं तुम्हारे पिता ! बच्चे निरुत्तर रहते. खैर, खलील को हारमोनियम बजाने नहीं आता था. वह तबले के डग्गे को ले कर गाने लगे. उसी से गानों की धुन बनाते थे. लेकिन जल्दी ही उन की मुलाकात उदय चंद्र परदेसी से हो गई. फिर तो उन का काम आसान हो गया और उन्हों ने इलाहाबाद में भी फिर से झंकार पार्टी गठित कर ली. तभी खलील को एक और गीतकार मिल गए गाज़ीपुर के भोलानाथ गहमरी. कौने खोंतवा में लुकइलू आहि रे बालम चिरई गीत उन्हों ने खलील को दिया. खलील ने इस गीत को भी झूम कर गाया. अब खलील ही खलील थे. उन के आगे-पीछे कोई और नहीं. कौने खोंतवा में लुकइलू, आहि रे बालम चिरई गीत खलील की पहचान बन गया. भोजपुरी गीतों का प्रतिमान बन गया. आज भी है.

मोहम्मद ख़लील की आवाज़ में- ‘अंगुरी में डसले बिया नगिनिया हो, हे ननदो दियना जरा द !’

खलील की गायकी में आकर्षण ही आकर्षण था. एक तो ठहरा हुआ मीठा स्वर, दूसरे ताल और लय का अदभुत संतुलन. तीसरे खलील की अदाकारी और फिर सोने पर सुहागा यह कि गीतों में नयापन. महेंद्र मिश्र का लिखा, ‘अंगुरी में डसले बिया नगिनिया हो, हे ननदो दियना जरा द !’ गीत ने जैसे खलील को भोजपुरी गायकी का मुकुट पहना दिया. फिर तो भोजपुरी गानों को भी मान मिलने लगा. माना जाने लगा कि भोजपुरी गायकी में भी साहित्य है, लालित्य है. सिर्फ़ सैंया-गोंइया वाली गायकी ही नहीं है भोजपुरी में. बेकल उत्साही का गीत, ‘गंवई में लागल बा अगहन क मेला/ गोरी झुकि-झुकि काटेलीं धान/ खेतिय भइल भगवान/ हो गोरी झुकि-झुकि काटेली धान !’ जैसे गीतों ने खलील और भोजपुरी दोनों का मान और बढ़ा दिया. छिंटिया पहिन गोरी बिटिया हो गइलीं या फिर ले ले अइह बालम बजरिया से चुनरी, या फिर लाली लाली बिंदिया जैसे गीतों ने खलील की गायकी के रंग को और चटक कर दिया. लागल गंगा जी क मेला, छोड़ा घरवा क झमेला ! जैसे गीत जो खलील की गयकी ही नहीं भोजपुरी गायकी की भी धरोहर बन गए. मोती बी.ए., भोलानाथ गहमरी, हरिराम द्विवेदी, महेंद्र मिश्र, राहगीर बनारसी, युक्तिभद्र दीेक्षित, जनार्दन प्रसाद अनुरागी जैसे भोजपुरी गीतकारों के गीतों को खलील ने न सिर्फ़ अपनी गायकी में परोसा बल्कि उन गीतों को संगीतमय आत्मा भी दी. यह अनायास नहीं था कि उमाकांत मालवीय, शंभूनाथ सिंह, उमाशंकर तिवारी, ठाकुरप्रसाद सिंह, पंडित श्रीधर शास्त्री जैसे हिंदी के गीतकार भी खलील के घर बैठकी करते थे इलाहाबाद में.

 हो गइलें गुलरी के फूल- मोहम्मद ख़लील की आवाज़ में

मोहम्मद खलील मेरी जानकारी में भोजपुरी के इकलौते गायक हैं जिन्हों ने भोजपुरी लोकगीत के स्तर को ले कर कभी कोई एक पैसे का भी समझौता नहीं किया. वाद्य यंत्रों तक में. ढोलक, हारमोनियम, तबला, सारंगी के साथ-साथ करताल, नगाड़ा और बांसुरी को भी उन्हों ने कभी नहीं छोड़ा. शायद इसी का नतीज़ा है कि वह बाज़ार को साध नहीं पाए और आज एक भी सी.डी. उन के गानों की बाज़ार में नहीं है. उन्हीं के गाए गाने कुछ दूसरे गायकों ने बड़े ही फूहड़ अंदाज़ में ज़रुर गाए हैं, वह सी डी बाज़ार में ज़रुर हैं. पर इन एहसानफ़रामोश गायकों ने खलील के गाए गानों को तो नष्ट-भ्रष्ट किया ही है कहीं एक भी शब्द में खलील की गायकी के प्रति कृतज्ञता नहीं ज्ञापित की है.
बताते हैं कि उन की गायकी से प्रभावित हो कर एक बार नौशाद उन्हें मुंबई ले गए. फ़िल्मों में गवाने के लिए. खलील अपनी मंडली के साथ गए भी मय नगाड़ा आदि के. रहे कुछ दिन मुंबई. लेकिन जब नौशाद उन से गायकी में कुछ बदलाव के लिए लगातार कहने लगे कि यह ऐसे नहीं, ऐसे कर दीजिए ! तो जब बहुत हो गया तो एक दिन खलील ने नौशाद से हाथ जोड़ लिया और कहा कि नौशाद साहब ज़रुरत पड़ी तो मैं भोजपुरी के लिए खुद को बेंच दूंगा, पर अपनी कमाई के लिए भोजपुरी को नहीं बेचूंगा. और वह चुपचाप अपनी टीम को ले कर वापस इलाहाबाद लौट आए. सोचिए कि एक वह दिन था भोजपुरी गायकी का, एक यह दिन है कि ढेर सारे गायक लोग अपनी प्रसिद्धी और पैसे के लिए भोजपुरी को नित नए दाम में नीलाम करते जा रहे हैं. भोजपुरी भाड़ में चली गई है तो उन की बला से. 1991 में जब शुगर की बीमारी के चलते खलील का निधन हुआ तो वह 55 साल के ही थे. उन के जनाजे में समूचा इलाहाबाद हाजिर था. हिंदू, मुसलमान, बंगाली, पंजाबी, छोटे-बड़े, अमीर गरीब सभी उपस्थित थे.

हँसि – हँसि बोले कुबोलिया, पापी रे छलिया – मोहम्मद ख़लील की आवाज़ में

पता नहीं क्यों अब यह बार-बार लगता है कि उन के निधन के साथ ही भोजपुरी गायकी का वह स्वर्णकाल विदा हो गया. उन के गाने में ही जो कहूं तो किसी खोंतवा में लुका गई, किसी अतरे में समा गई वह भोजपुरी गायकी. अब भोजपुरी गायकी में न वह अगहन का मेला लगता है, न गोरी झुक-झुक कर धान काटती है. खलील का गाया वह एक गाना याद आता है, प्रीति में न धोखा धड़ी, प्यार में न झांसा, प्रीति करीं अइसे जइसे कटहर का लासा ! फिर वह नगाड़ा बजता है और उस की गूंज भी ! तो अब भोजपुरी गायकों ने भोजपुरी गायकी में पैसे के लिए इतनी धोखाधड़ी कर दी है, भोजपुरी गायकी को इतना झांसा दे दिया है कि बिला गई है भोजपुरी गायकी अश्लीलता और आर्केस्ट्रा के शोर में. जो अब किसी सुगना पर लोभाती नहीं है, किसी फुनगी पर लुकाती नहीं है. और किसी अंतरे, किसी खोंतवा में नहीं बाज़ार के भाड़ में समा गई लगती है ! जाने कौन सी नागिन है यह जो भोजपुरी गायकी को इस तरह डस गई है. जिसे पटना का या कहीं का भी वैद्य अब बुलाने से यह जहर उतरता नहीं दिखता हाल-फ़िलहाल ! भोजपुरी गायकी में समाया प्रीति का वह कटहर का लासा अब बिसर गया है. भोजपुरी गीतों से वह रस सूख गया है जिस में जग की जवानी झूम-झूम जाती थी. वह मादकता, मिठास और उस की मांसलता जो कभी खलील ने बोई थी, बिला गई है.

लेखक दयानंद पांडेय वरिष्ठ पत्रकार और उपन्यासकार हैं. उनसे संपर्क 09415130127, 09335233424 और [email protected] के जरिए किया जा सकता है. यह लेख उनके ब्‍लॉग सरोकारनामा से साभार लिया गया है.