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बदलते दौर में परम्परागत त्यौहारों को मनाने का ढंग भी बदल रहा है. मकर संक्रांति से पहले बहू बेटियों के यहां खिचड़ी भेजने की परम्परा अब बीते जमाने की बात हो चली है. कभी के समय में यह पर्व बेटी-बहू के मायके ससुराल की प्रतिष्ठा व उसके सम्मान की बात समझी जाती थी. गांव के कहार, नाई से लेकर मुहल्ले तक इस त्यौहार से जुड़ते थे. बदलते दौर में मोबाइल पर हाय-हैलो व बधाई तक सिमट कर रह गया यह पर्व. सिकन्दरपुर (बलिया) से सन्तोष शर्मा की रिपोर्ट
अन्य त्योहारों की तरह मकर संक्रांति का त्यौहार भी अब पूरी तरह डिजिटल होता जा रहा है. गांव हो या शहर इस त्यौहार पर एक प्रथा लंबे समय से चली आ रही है, वह है विवाहित बिटिया या बहू को तिलवा यानी खिचड़ी भेजने की प्रथा. यह परंपरा अब किसी गांव में शायद ही दिख जाए. जब कि आज से डेढ़ दशक पहले तक गांव में दूर दराज से बड़े-बड़े दऊरा में या बहंगी पर तिल का तिलकुट व अन्य सामग्री लेकर आते जाते कहार संक्रांति से 10 दिन पूर्व से ही दिखने लगते थे. तब गांव के लोग कहार को दऊरा व बहंगी लिए देख बिना बताए भी यह जान लेते थे कि फलां के यहां उनके कुटुंब के यहां से खिचड़ी पहुंच चुकी है.
वहीं जिनके घर खिचड़ी पहुंचती थी उन्हें भेंट के रूप में अपने नज़दीकी लोगों में बांटना होता था. नहीं बांटने की स्थिति में लोग उनसे नाराज भी हो जाते थे, और अगले दिन इस बात की शिकायत प्रत्यक्ष रुप से करते थे, कि “का हो खिचड़ी आईल रहल ह तिलवा ना भेंजल ह”. अब वह नजारा लगभग गांव से गायब है. बुजुर्ग मानते हैं कि डिजिटल इंडिया में अब तमाम संबंध भी एक तरह से डिजिटल होते जा रहे हैं. इसे संबंधों की दूरिया कहें या आधुनिक मानसिकता. अब उसके स्थान पर मोबाइल पर हाय-हेलो के साथ कुछ संदेश एक दूसरे को सोशल साइट्स के माध्यम से भेज दिए जाते हैं.
एक दूसरे कुटुंब के लिए मंगलकामना कर ली जाती हैं. बुजुर्ग बताते हैं कि तबके समाज में असीमित लगाव होता था. हालांकि तब संचार माध्यमों का अभाव था. फिर भी लोग एक दूसरे का कुशल क्षेम जानने के लिए बेकरार रहते थे. बुजुर्गों ने बताया कि हमें याद है वह दिन भी जब बहू भी यदि मकर संक्रांति पर किसी कारण अपने मायके में होती थी तो उसके ससुराल से खिचड़ी भेजी जाती थी. वहीं यदि बहू अपने ससुराल में होती थी तो उसके मायके से ये रस्म निभाई जाती थी. इस मौके पर बेटी बहू को चूड़ा, गुड़, तिलवा, वस्त्र, तिलकुट, मिष्ठान आदि को हर हाल में भेजा जाता था. बिटिया व बहू को भी इंतजार रहता था कि इस मौके पर जरूर कोई उसका अपना उसके यहां पहुंचेगा. जिससे वह जी भर अपनत्व की भाषा में बात कर सकेगी. किंतु अब परिवार की परिभाषा ही बदलती जा रही है. गांवों न ही बहंगी नजर आ रही न ही कहार.