पुण्य तिथि पर भावपूर्ण स्मरण – एक जनपक्षधर सांस्कृतिक योद्धा थे भगवतशरण उपाध्याय

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बलिया। भगवतशरण उपाध्याय का जन्म सन्‌ 1910 में बलिया (उत्तर प्रदेश) में तथा निधन 12 अगस्त 1982 में मॉरीशस में हुआ. तीन खंडों में ‘भारतीय व्यक्तिकोश’ तैयार करने के अलावा उन्होंने नागरी प्रचारिणी सभा, काशी द्वारा प्रकाशित ‘हिन्दी विश्वकोश’ के चार खंडों का संपादन भी किया. भगवतशरण उपाध्याय का साहित्य-लेखन आलोचना से लेकर कहानी, रिपोर्ताज़, नाटक, निबंध, यात्रावृत्त, बाल-किशोर और प्रौढ़ साहित्य तक विस्तृत है. पुण्यतिथि पर बलिया लाइव टीम की ओर से जनपक्षधर सांस्कृतिक योद्धा भगवतशरण उपाध्याय को भावभीनी श्रद्धांजलि.

भगवतशरण उपाध्याय का जन्म सन् 1910 ई. में उत्तर प्रदेश के बलिया ज़िले के उजियार गाँव में हुआ. उनके पिता का नाम पंडित रघुनंदन उपाध्याय और माँ का नाम महादेवी था. उनके पिता बलिया में अच्छे वक़ील थे. उपाध्याय जी की प्रारंभिक शिक्षा बलिया में ही हुई. पिता की स्वाधीनता संग्राम के प्रति सहानुभूति की भावना ने उनके मन में भी राष्ट्रीय चेतना का बीज बचपन में ही अंकुरित कर दिया. यह समय दूसरे महायुद्ध की समाप्ति के बाद का था, जब सैनिक, किसान, मजदूर सभी में भयानक असंतोष फैल रहा था. स्वयं गांधी जी ने इस पृष्ठ भूमि में असहयोग आंदोलन छेड़ दिया था. इस आंदोलन में भगवतशरण उपाध्याय भी कूद पड़े, उनकी गिरफ़्तारी हुई, मुक़द्दमा चला और सज़ा भी हुई. यह वह समय था जब रूसी क्रांति हुई थी और हमारे देश में भी वामपंथ की चर्चा चल पड़ी थी. भगवतशरण भी यह मानने लगे थे कि पूंजीवाद के रहते देश की किसी समस्या का समाधान नहीं हो सकता.

1927 में बलिया से मैट्रिक पास करने के बाद, इलाहाबाद विश्वविद्यालय से स्नातक और लखनऊ विश्वविद्यालय से इतिहास में स्नातकोत्तर किया. इतिहास का अध्ययन और इतिहास-लेखन धीरे-धीरे उनके जीवन के अंग बन गये. एमए के बाद वापस पटना लौटकर उन्होंने प्रसिद्ध इतिहासकार काशीप्रसाद जयसवाल के साथ इतिहास संबंधी शोधकार्य प्रारंभ कर दिया. इसके बाद उन्होंने काशी विश्वविद्यालय की अनुसंधान पत्रिका का संपादन भी किया. 1940 में लखनऊ संग्रहालय के पुरातत्व विभाग के अध्यक्ष बने, और फिर 1943 में पिलानी के बिड़ला कॉलेज में इतिहास के प्राध्यापक नियुक्त हुए. इसके बाद उन्होंने स्वतंत्र लेखन प्रारंभ किया. विदेश यात्राएँ भी बहुत सारी कीं. अब तक उनकी ख्याति प्रसिद्ध इतिहासवेत्ता और प्राचीन सभ्यता-संस्कृति के विद्वान के रूप में होने लगी थी.

1952 में चीन में होने वाले विश्व शांति सम्मेलन में भी भारत की ओर से गए शिष्टमंडल के वे एक प्रमुख सदस्य थे. उन्होंने अमरीका, फ़्रांस, जर्मन, पेरिस, कैनबरा आदि स्थानों पर भी शिष्टमंडल के सदस्य के रूप में यात्राएँ की. वे नागरी प्रचारिणी सभा, काशी की ओर से प्रकाशित हिंदी विश्वकोश के संपादक भी रहे. अंत में वे उज्जैन में ही बस गये. 1981 में भारत सरकार ने उन्हें मॉरीशस में भारत का राजदूत नियुक्त किया, और वहीं 12 अगस्त 1982 को हृदय गति रुकने से उनका देहांत हो गया. बीसवीं सदी में भारत के संस्कृति, ज्ञान को विश्व फलक पर लाने वाले साहित्यकारों में उनका नाम अग्रणी है. उन्होंने अध्ययन भी बहुत किया था और उस अध्ययन से आगे अनुसंधान करके अन्य आने वालों के लिये क्षेत्र विशेष में अध्ययन के नये मार्ग भी खोले थे.

भगवतशरण उपाध्याय भारतविद् के रूप में देशी-विदेशी अनेक महत्वपूर्ण संस्थाओं से सक्रिय रूप से संबद्ध रहे तथा अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर भारतीय मनीषा का प्रतिनिधित्व किया. जीवन के अंतिम समय में वे मॉरीशस में भारत के राजदूत थे. भगवतशरण उपाध्याय का व्यक्तित्व एक पुरातत्वज्ञ, इतिहासवेत्ता, संस्कृति मर्मज्ञ, विचारक, निबंधकार, आलोचक और कथाकार के रूप में जाना-माना जाता है. वे बहुज्ञ और विशेषज्ञ दोनों एक साथ थे. उनकी आलोचना सामाजिक और ऐतिहासिक परिस्थितियों के समन्वय की विशिष्टता के कारण महत्वपूर्ण मानी जाती है. संस्कृति की सामासिकता को उन्होंने अपने ऐतिहासिक ज्ञान द्वारा विशिष्ट अर्थ दिए हैं.

डॉ. भगवतशरण उपाध्याय का व्यक्तित्व बहुआयामी है. यद्यपि उनके व्यक्तित्व और कर्तव्य का मुख्य क्षेत्र इतिहास है, उनके लेखन का मुख्य विषय इतिहास है, उनके सोचने का मुख्य नजरिया ऐतिहासिक है, फिर भी संस्कृति के बारे में उनके दृष्टिकोण और चिन्तन को देखा जाए, वैसे ही साहित्य के बारे में उनके दृष्टिकोण और चिन्तन को देखना भी कम रोचक नहीं है. हिन्दी आलोचना के विकास में अथवा आलोचना-कर्म में उपाध्याय जी की चर्चा आमतौर से नहीं सुनी जाती. हिन्दी-आलोचना पर लिखी पुस्तकों में उनका उल्लेख नहीं मिलता और हिन्दी के आलोचकों की चर्चा के प्रसंग में लेखकगण उनका ज़िक्र नहीं करते, लेकिन डॉ. भगवतशरण उपाध्याय ने साहित्य के प्रश्नों पर, ख़ासकर अपने समय के ख़ास प्रश्नों पर तो विचार किया ही है, उन्होंने बाजाब्ता साहित्य की कृतियों की व्यावहारिक समीक्षा भी की है. यह तो अलग से ध्यान देने योग्य और उल्लेखनीय है कि उन्होंने कालिदास पर जितने विस्तार से लिखा है, उतने विस्तार से और किसी ने नहीं लिखा. कालिदास उनके अत्यंत प्रिय रचनाकार हैं. उन पर डॉ. उपाध्याय ने कई तरह से विचार किया है.

प्रमुख कृतियाँ

हिंदी रचनाएँ

  • भारतीय संस्कृति के स्रोत
  • कालिदास का भारत (दो खंडों में)
  • गुप्तकालीन संस्कृति
  • भारतीय समाज का ऐतिहासिक विश्लेषण
  • कालिदास और उनका युग
  • भारतीय कला और संस्कृति की भूमिका
  • भारतीय इतिहास के आलोक स्तंभ (दो खंडों में)
  • प्राचीन यात्री (तीन खंडों में)
  • सांस्कृतिक चिंतन
  • इतिहास साक्षी है
  • ख़ून के छींटे इतिहास के पन्नों पर
  • समीक्षा के संदर्भ
  • साहित्य और परंपरा

अंग्रेज़ी रचनाएँ

  • इंडिया इन कालिदास
  • विमेन इन ऋग्वेद
  • द एंशेण्ट वर्ल्ड
  • फ़ीडर्स ऑफ़ इंडियन कल्चर