​आखिर सरकारें क्यों दिखाती हैं मुंगेरी लाल के हसीन सपने

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शिक्षा का बीड़ा उठाने वाले शिक्षक खुद के दायित्वों तले दबे, शिक्षक होना ही अजीब विडंबना

हल्दी (बलिया) से सुनील कुमार द्विवेदी

शिक्षक समाज का दर्पण होता है, ऐसा कहा गया है. लेकिन आज के परिवेश में वह दर्पण दिनोंदिन कमजोर होता जा रहा है. ऐसा क्यों हो रहा है? यह समझ से परे है. आये दिन शिक्षकों को कभी पुलिस की बर्बरता, तो कभी छात्रों के उदंडता का शिकार होना पड़ता है. इतना ही नहीं हमेशा प्रशासन की उपेक्षा का दंश भी इन्हें झेलना पड़ता है. आज के समाज में इस तरह की बाते आखिर क्यों हो रही है. यह बताने को कोई तैयार नहीं है. ये समझ से परे है. जहाँ तक मेरी समझ है कि शिक्षक का काम सिर्फ शिक्षा देना है. बावजूद शिक्षक को अपने हक के लिए लड़ना पड़ता है. ऐसे में जब वही अपनी मर्यादा के लिए जूझेगा तो छात्रों के भविष्य को कौन सुधारेगा ? यह समाज के लिए चिंता का विषय है.

जब हम शिक्षकों के दिनचर्या को नजदीक से देखते है तो शिक्षकों के साथ नौनिहालों के भविष्य पर तरस आता है. चलिये हम आप को भी परिषदीय विद्यालयों हाल दिखाने का प्रयास करते है.

सरकार द्वारा शिक्षा का मानक क्या है? शिक्षकों को आदेश है कि प्राथमिक विद्यालयों में पढ़ने वाले बच्चों को फेल नहीं करेंगे. हाँ मेनू के मुताबिक स्कूल में भोजन जरूर बनना चाहिए. छात्रों को मिलने वाले भोजन में पौष्टिक आहार की गुणवत्ता आवश्यक है. स्कूल के सभी बच्चों का ड्रेस अध्यापक को ही खरीदना है. विद्यालय के लिए भवन से लेकर शौचालय तक का निर्माण गुरु जी को ही कराना पड़ता है. इन सब चीजों को करने में मानक व गुणवत्ता का विशेष ध्यान रखना भी जरूरी है. अगर जाने अनजाने जरा सी भी गड़बड़ी हुई तो विभाग के एजेंट बीआरसी केन्द्रों पर मौजूद है. जो अधिकारियों को बताने में तनिक भी विलंब नहीं करते. इसके बाद तो शिक्षकों की शामत आनी तय है. यहीं से उत्पीड़न व शोषण की शुरुआत होती है. इतना ही नहीं गवई राजनीति का मोहरा भी इन्हीं को  बनना पड़ता है. इसके बाद नम्बर आता है चुनावों का जो किसी भी हाल में कराना ही होगा, अगर कोई कोताही हुई कार्रवाई तय है. उसके बाद हाकिमों के चौखट चूमना तो मजबूरी है. ऐसे में शिक्षक कितना पढ़ायेगा यह सोचने के लिए आप स्वयं ज्ञानी है.

परिषदीय विद्यालयों में शिक्षकों की कमी को देखते हुए प्रदेश सरकार ने वित्तीय वर्ष 1999-2000 में एक फरमान जारी किया. जिसके तहत बेसिक स्कूलों में शिक्षामित्रों की नियुक्ति करनी थी. जिसमें ग्राम प्रधान और प्रधानाध्यापक को मेरिट के आधार पर इन्टरमीडिएट पास युवाओं का चयन करना था. यह चयन प्रति बर्ष 11 माह के लिए करना था, जिसमें प्रतिबंध था कि अपने सगे का चयन नहीं करना है. लेकिन इन लोगों ने शासनादेश को ताक पर रखकर अपने खास को ही बतौर शिक्षा मित्र चयन किया. जिसके लिए विभाग से मानदेय निर्धारित किया गया था. जो प्रधान व प्रधानाध्यापक के संयुक्त खाते में आया करता था. चयनकर्ताओं ने अपने चहेतों का चयन कर बाजी मार ली. पात्र युवक उस समय भी देखते रह गए थे. समय के साथ इनका मानदेय में इजाफा भी होता रहा. लेकिन अपनी राजनीतिक रोटी सेकने के लिए सरकार का अगाध प्रेम इनके प्रति उमड़ पड़ा और ग्राम प्रधान के चहेते देखते ही देखते सरकार के चहेते बन गए. तभी तो तैनाती के दौरान ही स्नातक की डिग्री लेने की छूट के साथ ही बीटीसी की ट्रेनिंग करा दी और इन्हें सहायक अध्यापक के पद पर समायोजित कर मुंगेरी लाल के सपने दिखा दिया. खैर प्रमोशन भला किसे अच्छा नहीं लगता. 39 हजार रुपये प्रति माह की पगार पाकर पूर्ण शिक्षक हो गए.

इधर अपनी लाडलियों के पिता ने हाड़तोड़ मेहनत करके सिक्का-सिक्का जोड़कर दहेज की मोटी रकम शिक्षा मित्र से अध्यापक बने कुमारों को देकर अपनी बिटियाँ के हाथ पीले कर दिये, ताकि जीवन भर सुख की रोटी खायेगी. लेकिन किसको पता था कि इन बेचारों पर दुखों का ऐसा पहाड़ टुटेगा कि सारे सपने मुट्ठी की रेत की तरह फिसल जायेगा. शिक्षा मित्र वर्षों तक रुपये खर्च कर सुप्रीम कोर्ट तक बहुत ही पराक्रम के साथ लड़ते गए, किन्तु होनी के आगे सब बेबस व लाचार हो गए.

प्रदेश में जब हजारों बीएड व बीटीसी के प्रशिक्षु युवक-युवतियां बेरोजगार बैठे थे. तो इन्हें तैनाती के दौरान प्रशिक्षण दिलाने की क्या जरुरत थी ? अगर सरकार को इनके प्रति इतना ही हमदर्दी थी तो टेट क्यों नहीं कराया ? अगर ये अपनी मूल तैनाती वाले स्थान पर रहते तो यह दिन नहीं देखना पड़ता. आज इसी तरह के कई प्रश्न लोगों के मन में बेचैनी पैदा कर रही है. जिसका शायद ही किसी के पास कोई उत्तर हो. सरकार की ये लुकाछिपी का खेल आज सब पर भारी पड़ गया है. आखिर कोई तो बताये कि इनका कसूर क्या है?

इसी माथापच्ची में अपने शिक्षक होने का दायित्व को छोड़ कर ये लोग दिनों दिन उग्र होते जा रहे हैं. इस घटना क्रम के छह दिन बाद भी सरकार के तरफ से कोई ठोस पहल नहीं किया गया. यह और भी चिंता का विषय बना हुआ है. उम्र के इस पड़ाव पर ऐसे परिस्थिति से गुजरना वास्तव में कष्ट कारी है.

दूसरी ओर नौनिहालों की शिक्षा भी प्रभावित हो रही है. सरकार जल्दी ही कोई साकारात्मक कदम नहीं उठाई तो यह समस्या विकराल रूप धारण कर सकती है.  इसी तरह के विभिन्न समस्याओं से माध्यमिक व उच्च शिक्षा विभाग में तैनात शिक्षकों को आये दिन दो-दो हाथ करना पड़ता है. विभाग की अपनी एक अलग ही बिडम्बना है कि कभी लेट लतीफ़ तो कभी कोर्ट का चक्कर. इससे बाहर निकले तो प्रबंधको की पूजा करनी पड़ती है.

वाह रे अधयापक !

कुछ इसी तरह का डिग्री कॉलेजों का है. जहाँ  वर्षो से शिक्षको का पद ख़ाली है. लेकिन किसी को कोई परवाह नहीं है. सरकारी कॉलेजो में स्नातकोत्तर और स्नातक स्ववित्तपोषित शिक्षक जिनकी कोई विभाग सम्मान  नहीं करता. विद्यालय के प्राचार्य से लेकर विश्वविद्यालय तक की नजरों में हीन भावना से देखते है. ऐसे में ये शिक्षक अपनों के बीच में भी उपेक्षित व ठगा महसूस करते है. सवाल यह उठता है कि जब से स्ववित्तपोषित आया तब से ही शिक्षक सेवा दे रहे है. क्या उनकी जिंदगी नहीं है. क्या उनके परिवारिक दायित्व नहीं है. उनके बच्चे जब आवश्यक चीजों की मांग करते होगे तो उन पर क्या गुजरती होगी. किसी ने इस पर सोचने की जहमत नहीं उठाया. कहने को तो उच्च शिक्षा के प्राध्यापक है. लेकिन अपने ही बच्चों के शिक्षा से लेकर अन्य दिनचर्या की वस्तु भी ला पाने में अक्षम है. ऐसे में जिसके घर बेटियाँ हैं, उनकी समस्या और भी विकट है. समाज को सुधारने का बीड़ा उठाने वाले शिक्षक अपनी परेशानियों के बोझ तले दिनोंदिन गर्त में जा रहे हैं.