संगीन पे धर कर माथा, सो गए अमर बलिदानी

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दुबहर (बलिया)। कभी ना अस्त होने वाले अंग्रेजी हुकूमत के खिलाफ किसी में बगावत करने की हिम्मत नहीं होती थी. दिन प्रतिदिन अंग्रेजों के अत्याचार बढ़ते जा रहे थे. बेवजह भारतीय सताए जाने लगे चारों ओर हाहाकार मचा था. उस समय 1857 में बलिया जनपद के गंगा के किनारे बसे नगवा गांव के निवासी मंगल पांडे ने ईस्ट इंडिया कंपनी के सिपाही होते हुए भी अंग्रेजों के जुल्म और अत्याचार के खिलाफ बगावत कर हाथ में हथियार उठा लिया और कई अंग्रेज अफसरों को मौत के घाट उतार कर सोए भारत के स्वाभिमान को जगा दिया. मंगल पांडेय की बगावत ने पूरे भारत में अंग्रेजों के जुल्म के खिलाफ आवाज बुलंद करने की ताकत दी जो देखते ही देखते एक बड़ी क्रांति का रुप ले लिया, जिसके परिणाम स्वरुप 1947 में अंग्रेजों को हमेशा हमेशा के लिए भारत छोड़कर जाना पड़ा.

मंगल पांडेय के परिजनों का नगवा बंधुचक स्थित मौजूदा घर

सुदिष्ट पांडेय व जानकी देवी के पुत्र थे मंगल पांडेय

इस महान महापुरुष का जन्म उत्तर प्रदेश के तत्कालीन जनपद गाजीपुर के बलिया तहसील अंतर्गत नगवा गांव में 30 जनवरी 1831 को हुआ था. मंगल पांडे के माता का नाम जानकी देवी तथा पिता का नाम सुदिष्ट पांडेय था. मंगल पांडेय तीन भाई थे. ललित पांडेय, गिरवर पांडेय और मंगल पांडेय. मंगल पांडेय में बचपन से ही देशप्रेम और स्वाभिमान कूट कूट कर भरा था. वे 18 वर्ष की आयु में ईस्ट इंडिया कंपनी के 34 नंबर देसी पैदल सेना के 19 वी रेजीमेंट की पांचवी कंपनी के 1446 नंबर के सिपाही के पद पर भर्ती हुए. उस समय ब्रिटिश राज में बंगाल व बिहार में आकाल से लाखों लोगों की मृत्यु हो हर वर्ष हो रही थी. अंग्रेजी राज में हिंदुस्तानी घुड़सवारी नहीं कर सकते थे, लोगों की परंपरागत शिक्षा न्याय व सामाजिक व्यवस्था में दखल भी बढ़ना शुरू हो गया था गोरे तथा देसी सैनिकों में भेदभाव शुरू हो गया था. अधिक मेहनत करने पर भी काम वेतन कम सुविधाएं तथा ऊंचे पदों से दूर रखना आदि गोरे अफसरों द्वारा नित्य अपमान जैसी बातें सैनिकों के मन में उबाल ला रही थी.

अंग्रेज सार्जेंट मेजर ह्यूसन के आदेश के बावजूद कोई सिपाही मंगल पांडेय को गिरफ्तार करने के लिए आगे नहीं बढ़ा

भारतीयों के धार्मिक भावनाएं भड़काने के लिए भी अंग्रेज सिपाहियों को गाय और सूअर की चर्बी लगी कारतूस उपयोग के लिए देने लगे. इस बात की जब जानकारी मंगल पांडेय को हुई तो वह क्रोध में आग बबूला हो गए और अंग्रेजों से भारतीयों के अपमान का बदला लेने के लिए बेचैन हो गए. मंगल पांडेय ने अंग्रेजो के खिलाफ बगावत के लिए 29 मार्च को परेड ग्राउंड का आस्थान चुना 29 मार्च को रविवार का दिन था. रविवार के दिन अंग्रेज अफसर थोड़ा आराम फरमाते थे. मंगल पांडेय ने परेड ग्राउंड में ही अपने साथियों को बगावत के लिए विद्रोह करने के लिए ललकारा मंगल पांडेय परेड मैदान में एक खूंखार शेर की तरह इधर उधर घूम रहे थे. तभी वहां अंग्रेज सार्जेंट मेजर ह्यूसन आया और मंगल पांडे को गिरफ्तार करने का आदेश दिया, लेकिन मंगल पांडे को गिरफ्तार करने के लिए एक भी सिपाही आगे नहीं बढ़े. मंगल पांडेय ने अपनी बंदूक निकाल कर सार्जेंट मेजर को तुरंत मौत के घाट उतार दिया. इसके बाद मौके पर लेफ्टिनेंट बाब घोड़े पर सवार होकर आया मंगल पांडे की बंदूक दर्जी और वह वही लुढ़क गया. इसके बाद मंगल पांडेय बंदूक में गोली भरने लगे इसका लाभ उठाते हुए एक अंग्रेज अफसर ने मंगल पांडे पर पिस्तौल से फायर किया, लेकिन उसका निशाना चूक गया है.

मंगल पांडेय को फांसी देने के लिए बैरकपुर परेड मैदान के ठीक बीचोबीच मंच बनाया गया था

मंगल पांडेय ने तलवार निकालकर उसका भी काम तमाम कर दिया. इसके बाद मंगल पांडेय पर हमला करने के लिए एक गोरा सैनिक आगे आया जिसे पाने हिंदुस्तानी सैनिकों ने बंदूक के कुंदे से मार कर उसका काम तमाम कर दिया. यह घटना जंगल में आग की तरह फैल गई. अंग्रेज अफसर सैनिकों के साथ बैरकपुर में इकट्ठा होने लगे मंगल पांडेय को चारों तरफ से घेर लिया गया. मंगल पांडेय ने अपनी बंदूक अपनी छाती पर सटाकर गोली दाग ली घायलावस्था में मंगल पांडे को अस्पताल में भर्ती कराया गया, जहां कुछ दिनों बाद वह पूरी तरह स्वस्थ हो गए. मंगल पांडे पर मुकदमा चला. मंगल पांडेय ने अपनी सफाई में कहा कि मैंने जो कुछ किया, अपने देश की रक्षा के लिए किया है. फौजी अदालत ने मंगल पांडेय को विद्रोही और खूनी होने का दोनों अभियोग साबित किया और 8 अप्रैल को 5.30 बजे परेड मैदान में फांसी देने की हुकमत सुनाई. मंगल पांडेय को फांसी देने के लिए बैरकपुर परेड मैदान के ठीक बीचोबीच मंच बनाया गया, जहां भारी सुरक्षा के बीच 8 अप्रैल को प्रातः काल 5.30 बजे फांसी पर झूला दिया गया. मंगल पांडेय की इस कुर्बानी ने भारतीयों को झकझोर कर रख दिया. मंगल पांडेय के रेजीमेंट के सिपाही बगावत के लिए तैयार हो चुके थे. मजबूरन अंग्रेज अफसरों को उस रेजिमेंट को भंग करना पड़ा, लेकिन यह आवाज कहां दबने वाली थी. जगह-जगह अंग्रेजों के जुल्म के खिलाफ आवाज उठने लगे और स्वतंत्रता संग्राम शुरू हुआ, जिसका परिणाम रहा कि देश 15 अगस्त 1947 को हमेशा के लिए अंग्रेजों से आजाद हो गया.