गांव की गलियों से सिमट कर अब कमरों में बंद हो गई होली

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कहीं नहीं नजर नहीं आता होली का अब वह हुड़दंग

लवकुश सिंह

होली यानि फागुन मस्‍ती का त्‍योहार है. रंग की पहली याद गांव से ही शुरू होती है. बहुत दिन नहीं हुए, अभी एक दशक पहले तक गांव के सभी बुर्जुग, यूवा घर-घर जाकर फाग गाते थे. लगभग गांवों में दुआर पर कई दिन पहले से महफिल जमने लगती थी. शर्बत, पान, बीड़ी के बीच ढ़ोलक, हारमोनियम, झाल पर जब फगुआ की बैठकी शुरू होती तो गांव के सभी लोग एक जगह जमा हो जाते थे.

गांव के मंदिरों, चौपालों में हाली से 15 दिन पूर्व से ही फगुआ गायन के स्‍वर सुनाई देने लगते थे. होली के दिन गांव की किसी भी गली से गुजरना आसान नहीं होता था. युवाओं की टोली, किसी भी राहगीर को बिना रंग लगाए नहीं छोड़ती थी. कहीं रंगों की बौछार तो कीचड़ की उछाल से हर किसी के चेहरे, पहचानने लायक भी नहीं होते थे. गांव के उन बुर्जुगों की तो और भी शामत होती थी जो, रंगों से चिढ़ने वाले या रंग लगने के बाद गाली देने वाले होते थे. गांव के यूवा ऐसे बुर्जगों को खोज-खोज कर रंग लगाते और उनके मुंह से गाली सुन निहाल हो जाते थे. यह सब तब संभव था जब हर गांव के सभी लोग इस त्‍योहार में एकता के धागे में बंधे नजर आते थे.

अब इस त्‍योहार में भी काफी हद तक बदलाव आ चुका है. आपसी भाईचारा और रंगों की यह होली भी समय के सांथ सिमट कर कमरे में बंद होते नजर आने लगी है. विगत कुछ वर्षों से लगभग गांवों की यही तस्‍वीर है. अब होली में कोई भी घर के बाहर निकलना नहीं चाहता. इसके पीछे कारण यह कि अब होली के उस खुले रूप का मतलब ही कुछ और हो चला है. इसलिए रंगों के समय सभी का यह मानना होता है कि रंगों के समय में घर से बाहर निकलना, मतलब किसी न किसी विवादों में घिरना या उलझना है. इसलिए इस दिन अधिकांश लोग दिनभर अपने-अपने कमरे में बंद होकर घर में ही टीवी देखना और पकवान का आनंद लेना ही उचित समझते हैं. लिहाजा अब सभी की स्‍मृतियों में ही रह गया है, होली का वह खुला रूप. अब होली में गांव की गलियां भी सुनी-सुनी हैं. सुने पड़ गए हैं महफिल भी, होली में मस्‍ती अब बाहर नहीं बंद हो गई है कमरे के अंदर.

बदला जमाना, होली पर चढ़ा सोशल मीडिया का रंग

फाल्गुन मास की दस्तक के साथ ही प्रकृति में अलग ही हलचल दिखाई देती है. इस दरम्‍यान प्रकृति ने अपना नियम तो नहीं बदला, लेकिन आधुनिकता की दौड़ में हमारी परंपराएं जरूर निढाल हो गई हैं. फाल्गुन माह में पहले शहर से लेकर गांवों तक में फाग गीतों की धूम मचती थी, जहां हर गली में मोहब्बतों के रंग में लिपटी रंगीली होली मनाई जाती थी, अब इस होली ने अपना स्वरुप पूरी आधुनिक कर लिया है. बदलते इस दौर में, जहां लोगों के दिलों में दूरी आई है, तो अब होली भी दूर से ही फेसबुक, व्हाट्स ऐप और मेसेज के जरिये अधिक मनाई जाने लगी है. दिन भर मोबाइल में व्हाट्स ऐप, फेसबुक पर होली के मेसेज और फ़ोटो लोग एक दूसरे को लगातार अग्रिम तौर पर भेज रहे हैं. अब होली ने ख़ास कर युवाओं को अपने पीसी और मोबाइल तक ही सीमित रखा है.