विश्व आदिवासी दिवस पर विशेषः एक निष्काम कर्मयोगी – त्रिलोकी नाथ सिनहा

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विजय शंकर पांडेय

अब उनके हाथ कांपने लगे थे. वजह भी वाजिब थी. उनकी उम्र 74 साल हो चुकी थी. मगर कर्मयोगी भला निष्कर्म रहना कैसे पसंद करता. कहा ही जाता है कि कुछ कर गुजरने का जज्बा हो तो कामयाबी हमेशा कदम चूमती है. फिर जुट गए एक नए अभियान पर. कलम उठाई. रोज आठ से दस घंटे लिखने के दृढ़ संकल्प के साथ. और अपने जीवन भर की थाती, अनुभवों, वन नायकों और सामाजिक सरोकारों के लिए खुद को उत्सर्ग कर देने वाले मनीषियों को कागजों पर जीवंत ही नहीं, अमर कर दिया. उनकी 15 पुस्तकें इस बात को प्रमाणित करने के लिए पर्याप्त हैं. यह सिर्फ श्रमसाध्य कार्य ही नहीं था, बल्कि उनकी जीवटता, कर्मठता, रचनात्मकता और समय के प्रति उनकी सजगता का अप्रतिम उदाहरण भी है. जी हां, यहां मैं चर्चा कर रहा हूं, त्रैलोक्य से प्यारी काशी के सगे कर्मयोगी त्रिलोकी नाथ सिनहा की. कल अर्थात 10 अगस्त को वे अपनी 89वी वर्षगांठ मनाएंगे, मगर आज इस वजह से भी उनकी चर्चा जरूरी है, क्योंकि उन्होंने अपना पूरा जीवन वनवासियों के उत्थान और सेवा के लिए समर्पित कर दिया. और आज विश्व आदिवासी दिवस है.

राम काजु कीन्हें बिनु मोहि कहां विश्राम

एक वजह और भी है. राम चरित मानस के सुंदरकांड के मुताबिक ‘हनुमान तेहि परसा कर पुनि कीन्ह प्रनाम, राम काजु कीन्हें बिनु मोहि कहां विश्राम’. जैसे हनुमान जी उस वक्त अपने लक्ष्य को साधने के लिए राम काजु में जुटे थे, वैसे ही त्रिलोकी नाथ सिनहा ने भी राम काजु के लिए ही अपने जीवन को समर्पित कर दिया. जी हां, यह बिल्कुल सोलह आने सही बात है. 2011 की जनगणना के अनुसार भारत दुनिया का सबसे बडा आदिवासी बहुल देश है. और दुनिया में सबसे पहले प्रभु राम ने ही आदिवासियों और दलितों को संगठित करने और मुख्य धारा से जोड़ने का बीड़ा उठाया था. राम ने पहले आदिवासियों को बाणासुर के अत्याचार से मुक्त करवाया. इसके बाद 10 वर्षों तक आदिवासियों के बीच ही रहे. छत्तीसगढ, ओडिशा और आंध्र प्रदेश जैसे राज्यों के हिस्से ही राम के दंडकारण्य थे. निषाद, वानर, मतंग, किरात और रीछ ही तब के दलित या आदिवासी समाज के लोग थे. भील समूह के बीच पला बढ़ा डाकू रत्नाकर आगे चलकर रामायण के रचयिता महर्षि वाल्मिकी बने. राम ने ही वन में उनके साथ रहकर उन्हें धनुष वाण चलाना सिखाया. गुफाओं के उपयोग करना सिखाया और उनके मन में परिवार की धारणा को विकसित किया.

एक आदर्श शिक्षक की हैसियत से सभ्यता और संस्कृति की अलख जगाई

प्रभु राम के इसी महान उद्देश्य को सफल बनाने के लिए त्रिलोकी नाथ सिनहा ने भी अपना जीवन उत्सर्ग कर दिया. मात्र 20 साल की छोटी सी उम्र में राष्ट्र कार्य के लिए उन्होंने घर छोड़ दिया. साल 1948 और 1975 में वे जेल भी गए. मगर अनगिनत विद्यार्थियों के बीच उन्होंने एक आदर्श शिक्षक की हैसियत से सभ्यता और संस्कृति की अलख जगाई. अव्वल तो पूर्वांचल वैसे भी एक नितांत पिछड़ा हुआ अंचल है, मगर उन्होंने उसके सबसे पिछड़े अव्यवस्थित और सुदूर वनवासी क्षेत्र को अपनी कर्मभूमि बनाया. महानगर काशी का ठाट बाट छोड़कर वे साल 1971 में तब के मिर्जापुर और अब के सोनभद्र जिले के घोरावल के लिए दृढ़संकल्प के साथ प्रस्थान किए. और वहां पहुंच कर उन्होंने अपना शत प्रतिशत वनवासी समाज को समर्पित कर दिया.

वनवासी लोगों के बीच रह कर उन्होंने उनका भविष्य संवारा

बतौर एक शिक्षक उन्होंने असंख्य विद्यार्थियों को जीवन पथ पर अग्रसर होने के लिए प्रेरित ही नहीं किया, राष्ट्र निर्माण में उनकी भूमिका को भी रेखांकित किया. उन्हें संस्कारवान व शिक्षित बनाने के लिए, समाज की मुख्य धारा में शामिल करवाने के लिए, इस दुरूह कार्य को संपन्न करवाने के लिए उन्होंने वनवासी कल्याण केंद्र, घोरावल की स्थापना की. इस नितांत पिछड़े इलाके को उन्होंने पैदल या साइकिल से छान मारा. वनवासी लोगों के बीच रह कर उन्होंने उनका भविष्य संवारा. आज यह केंद्र इस निर्धनतम वनवासी समाज के लिए एक आधार स्तम्भ सरीखा है. गौरतलब यह भी है कि यह केंद्र किसी सरकारी सहायता का मोहताज भी नहीं है. इस उद्देश्य की प्राप्ति के लिए उन्होंने केंद्र की योजनाओं के लिए समाज के ही सामर्थ्यवान व्यक्तियों को जोड़ा. यह त्रिलोकी नाथ जी के सांगठनिक नेतृत्व क्षमता, कठोर परिश्रम और द्ढ़ संकल्प का एक जीता जागता नमूना मात्र है.

निष्काम कर्मयोगी की तरह अपने कर्तव्य पथ से डिगे नहीं

साल 1994 में बीएड विभाग के विभागाध्यक्ष पद से सेवा निवृत्त होने के बाद उन्होंने चंदौली के नक्सल प्रभावित क्षेत्र नौगढ़ में जाकर वनवासी समाज को मुख्य धारा में लाने के लिए महर्षि वाल्मीकि सेवा संस्थान के रूप में एक बेहद प्रभावी और भव्य वनवासी केंद्र का निर्माण करवाया. इन्हीं वनवासी प्रकल्पों से गढ़े गए हजारों वनवासी बच्चे आज विभिन्न क्षेत्रों में राष्ट्रनिर्माण में अपनी महत्वपूर्ण भूमिका अदा कर रहे है. इनमें कई विधायक, सांसद और सामाजिक कार्यकर्ता भी हैं, तो कई शिक्षक, पुलिसकर्मी और अन्य सरकारी महकमों में नियुक्त हैं. मगर त्रिलोकी नाथ जी आज भी निष्काम कर्मयोगी की तरह अपने कर्तव्य पथ से डिगे नहीं है.

अपने समय, सामर्थ्य, अर्थ और कठोर श्रम की आहुति दी

लगभग छह महीने पहले एक अखबार में भोपाल से एक खबर छपी थी. उस खबर में राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ के मुखिया मोहन भागवत ने स्वयं सेवकों से कई सवाल पूछे थे. पूछा था कि आप ही बता दें कि अब तक आपने कितना काम किया? सिर्फ संगठन में राज्य स्तरीय या अखिल भारतीय पद हासिल करने से कुछ नहीं होता, स्वयंसेवक बनकर काम करना और समाज में स्थान बनाना पड़ता है. अगर गौर कीजिए तो मोहन भागवत के इस फार्मूले पर सोलह आना खरा उतरने के लिए त्रिलोकी नाथ जी से बेहतर उदाहरण शायद ही मिले. उन्होंने अपना सम्पूर्ण जीवन एक सामान्य कार्यकर्त्ता की हैसियत से बिताया. वनवासी बंधुओं के उत्थान और उनके जीवन निर्माण के महान यज्ञ में अपने समय, सामर्थ्य, अर्थ और कठोर श्रम की आहुति दी. असंख्य लोगों के जीवन में राष्ट्र भक्ति, दायित्व बोध, कर्मठता और अनुशासन का निर्माण किया.

बनारस की गलियों में छिपते छुपाते चेतगंज थाने में गिरफ्तार कर लिए गए

12 भाई बहनों में त्रिलोकी नाथ जी आठवें और भाइयों में चौथे स्थान पर थे. पिता स्टेशन मास्टर थे. उनके सभी भाई और बहनोई सरकारी विभागों में उच्च पदों पर थे. अंग्रेजों के शासन काल में संघ जैसे सामाजिक और सांस्कृतिक संगठन से जुड़ने का मतलब परिजनों से विद्रोह माना जाता था. साल 1948 में प्रतिबंध लगा था तो वे परिजनों को चकमा दे बनारस की गलियों में छिपते छुपाते चेतगंज थाने में गिरफ्तार कर लिए गए. उन्होंने बताया कि इसके बाद उन्हें असह्य यातनाएं दी गईं. बर्फ की सिल्ली पर लिटा कर पूछताछ की गई. साल 1975 में मीसा के तहत बंदी रहे.

अपने इस उत्सर्ग के एवज में कुछ पाने की कभी लालसा नहीं रही

उनके इन्हीं वनवासी प्रकल्पों में गढ़ी गईं प्रतिभाएं आज शिक्षक, पुलिसकर्मी, सरकारी कर्मचारी / अधिकारी, विधायक, सांसद और सामाजिक कार्यकर्ता बन कर समाज को एक नया आयाम दे रही हैं. इन प्रकल्पों के कण कण में त्रिलोकी नाथ सिनहा की आत्मा बसती है. आज की पीढ़ी को यह जानना और समझना चाहिए कि जिस सामाजिक ताने बाने ने उन्हें मुकाम तक पहुंचाया है, उसके पीछे किसी निष्काम कर्मयोगी का अथक परिश्रम, निस्वार्थ सेवा और त्याग रहा है. गौर करने वाली बात तो यह भी है कि चुनाव आते ही वंचित तबके के घर भोजन करने और फोटो खिंचवाने की होड़ लग जाती है. मीडिया में उसका जमकर प्रचार प्रसार किया जाता है. मगर जिसने इस तबके को सम्मान के रोटी कमाने ही नहीं, कामयाबी का शिखर चुमने लायक बनाया, उसे आजीवन पब्लिसिटी से परहेज रहा. वजह साफ है. एक निष्काम कर्मयोगी को अपने इस उत्सर्ग के एवज में कुछ पाने की कभी लालसा नहीं रही.

उनकी रचनात्मक सांगठनिक क्षमता के भी कई उदाहरण है

कानपुर के श्री मुनि हिन्दू इंटर कॉलेज के संस्थापक प्रधानाचार्य थे त्रिलोकी नाथ सिनहा. भाऊराव देवरस के एक आदेश पर उन्होंने 1959 में नौकरी छोड़ दी. मध्य प्रदेश के सुदूर वन क्षेत्र बैतूल में वे सपत्नीक पहुंचे. और भारत भारती आवासीय विद्यालय की स्थापना की. तब बैतूल के हालात ऐसे थे कि विद्यालय परिसर में जंगली हिंसक पशुओं की आवाजाही आम बात थी. अमूमन प्रबंधकों और आचार्यों की हिम्मत जवाब दे जाती. मगर लक्ष्य के प्रति समर्पित सिपाही की तरह त्रिलोकी नाथ जी मोर्चे पर डंटे रहे. बलिया के सिकंदरपुर स्थित गांधी इंटर कॉलेज में भी उन्होंने बतौर शिक्षक अपनी सेवाएं दी. उन्हीं की बदौलत वहां शाखाएं लगनी शुरू हुईं. बहुमुखी प्रतिभा संपन्न त्रिलोकी नाथ सिनहा न सिर्फ कुशल वक्ता हैं, बल्कि उनकी रचनात्मक सांगठनिक क्षमता के भी कई उदाहरण है. साल 1979 में प्रयाग के द्वितीय विश्व हिन्दू सम्मलेन, 1990-91 में लखनऊ में रामजन्म भूमि के लिए आयोजित विशाल जन सम्मेलन तथा वर्ष 1983 में पोर्ट ब्लेयर, अंडमान द्वीप समूह में तीन माह का प्रवास करते हुए विराट हिंदु सम्मलेन का उन्होंने सफल संचालन किया. मगर योगी होने की पहली शर्त है कि आप वियोगी हो, जो इस शर्त को पूरा नहीं करता वह योगी हो ही नहीं सकता. त्रिलोकी नाथ जी पूरे 24 कैरेट निष्काम कर्मयोगी है.