बीएचयू प्रकरण : ज्ञानी से सिर्फ ज्ञान लीजिए , उसके मजहब पर मत जाइए

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प्रयागराज से आलोक श्रीवास्तव


एक धर्म की नगरी प्रयागराज में जन्मे और यही से पढ़ाई करके दूसरे धर्म की नगरी बनारस में विश्वविद्यालय की स्थापना करके मदन मोहन मालवीय ने सोचा भी नहीं होगा कि मजहब के आधार पर इस तरह विश्वविद्यालय में विवाद पैदा किया जाएगा

पश्चिम बंगाल का मुसलमान बंगाली, उड़ीसा का उड़िया, बिहार, उत्तर प्रदेश, हरियाणा, राजस्थान, हिमाचल प्रदेश, मध्यप्रदेश, छत्तीसगढ़, झारखंड का हिंदी बोलता है. पंजाब का मुसलमान पंजाबी, तमिलनाडु के तमिल, कर्नाटक का कन्नड़, केरल का मलयालम, आंध्रप्रदेश का तेलगु बोलता है.

अमेरिका और इंग्लैंड का मुसलमान अंग्रेजी बोलता है. बांग्लादेश का मुसलमान बंगला बोलता है. अरब देशों के मुसलमान अरबी बोलते हैं. ये उदाहरण यह बताने के लिए काफी हैं कि भाषा और बोली का किसी धर्म से कोई संबंध नहीं है.

भाषा संवाद का साधन है जिसके जरिए हम अपने विचार दूसरों तक पहुंचाते हैं और दूसरों के विचारों को समझते हैं. उर्दू न मुसलमानों की भाषा हो सकती है और न ही संस्कृति हिंदुओं की. भाषा सबकी है. भाषा को लेकर विवाद पैदा करना कहीं से भी जायज नहीं है, जैसा काशी हिंदू विश्वविद्यालय ( बीएचयू ) के संस्कृति धर्म विज्ञान संकाय के छात्रों द्वारा किया जा रहा है.

विरोध इस संकाय में एक मुसलमान डॉ. फिरोज खान का सहायक प्रोफेसर पद पर नियुक्ति है. छात्रों का कहना है कि एक सनातन धर्मी ही कर्मकांड पढ़ा और करा सकता है अन्य धर्म का व्यक्ति नहीं. यदि हम इस बात को मान भी लें तो हकीकत यह है कि डॉ. फिरोज की नियुक्ति साहित्य पढ़ाने के लिए हुई है न कि कर्मकांड.

महामना मदन मोहन मालवीय पर लांछन मत लगाओ

पंडित मदन मोहन मालवीय ने इस विश्वविद्यालय की स्थापना वसंत पंचमी के दिन 1916 में की थी. वह स्वतंत्रता सेनानी ही नहीं महान शिक्षाविद भी थे. वह शिक्षा के महत्व को समझते थे तभी उन्होंने इस विश्वस्तरीय विश्वविद्यालय को खोलने के लिए प्रयास किए.

इतना महान व्यक्ति संकीर्ण विचारधारा का नहीं हो सकता कि वह संस्कृति के पठन-पाठन के लिए सिर्फ सनातनधर्मी को ही नियुक्ति देने की व्यवस्था बीएचयू में करे, जैसा कि बीएचयू के छात्र कह रहे हैं. इसके बावजूद यह भी सोचने की जरूरत है कि अब भारत आजाद है, उसका अपना संविधान है, देश का शासन संविधान के अनुसार चलता है.

यदि संविधान और किसी संस्थान के नियम में टकराव होता है तो संविधान में दी गई व्यवस्था ही मान्य होगी. भारत का संविधान किसी से भेदभाव की इजाजत नहीं देता. हकीकत में हिंदू धर्म भी किसी से भेदभाव की अनुमति नहीं देता. अपने हित के अनुसार भले ही हम किसी रूप में धर्म की व्याख्या कर लें.

महामना, निजाम से क्यों सहायता मांगते

महामना यदि संकीर्ण विचारधारा के होते तो हैदराबाद के निजाम से सहायता नहीं मांगते. महामना को लेकर कुछ बातों को जान लेना चाहिए.

मदन मोहन मालवीय ने 4 फरवरी 1916 को काशी हिंदू विश्वविद्यालय की नींव रखी थी, लेकिन इसे विकसित करने के मकसद से चंदा जुटाने के लिए वह पूरे देश का दौरा कर रहे थे. वे हैदराबाद पहुंचे. निजाम से मिले. लेकिन निजाम ने उन्हें मदद करने से इनकार कर दिया.

पंडित मालवीय हार मानने वाले नहीं थे. वे जिद पर अड़े रहे. इस पर निजाम ने कहा कि मेरे पास दान में देने के लिए सिर्फ अपनी जूती है. पंडित मालवीय राजी हो गए. महामना निजाम की जूती ले गए और हैदराबाद में चारमीनार के पास उसकी नीलामी लगा दी. निजाम की मां चारमीनार के पास से बंद बग्‍घी में गुजर रही थीं.

भीड़ देखकर जब उन्होंने पूछा तो पता चला कि कोई जूती 4 लाख रुपए में नीलाम हुई है और वह जूती निजाम की है. उन्हें लगा कि बेटे की जूती नहीं इज्‍जत बीच शहर में नीलाम हो रही है. उन्होंने फौरन निजाम काे सूचना भिजवाई. निजाम ने पंडित मालवीय को बुलवाया और शर्मिंदा होकर बड़ा दान दिया.

एक और कहानी यह है कि निजाम के इनकार के बाद जब पंडित मालवीय महल से बाहर आए तो पास ही एक शव-यात्रा गुजर रही थी. जिस व्यक्ति का निधन हुआ था वह हैदराबाद का धनी सेठ था. शव-यात्रा के दौरान गरीबों को पैसा बांटा जा रहा था.

पंडित मालवीय ने भी हाथ आगे बढ़ा दिया. एक व्यक्ति ने उनसे कहा कि लगता तो नहीं कि आपको इस पैसे की जरूरत है. इस पर वे बोले- भाई क्या करूं? तुम्हारे निजाम के पास तो मुझे देने के लिए कुछ नहीं है. खाली हाथ काशी लौटूंगा तो क्या कहूंगा कि निजाम ने कुछ नहीं दिया? … इसके बाद निजाम ने उन्हें बुलवाया और मदद की. यदि मालवीय जी को मुसलमानों से परहेज होता तो वो हैदराबाद के निजाम से विश्वविद्यालय के लिए सहायता क्यों मांगते.

मालवीय जी के पौत्र ने कहा- वह होते तो फिरोज के नाम पर पहले मुहर लगाते

इलाहाबाद हाईकोर्ट से सेवानिवृत्त न्यायाधीश , बीएचयू के चांसलर और पंडित मदन मोहन मालवीय के पौत्र न्यायमूर्ति गिरधर मालवीय नियुक्ति को सही बताते हुए कहा कि मालवीय जी आज होते तो डॉ. फिरोज खान के नाम पर सबसे पहले मुहर लगाते.

महामना में जरा भी संकीर्णता नाम की चीज नहीं थी. वह उदारवादी थे. बीएचयू प्रशासन ने कह दिया है कि सभी कानून और नियम के अनुसार योग्य व्यक्ति का चयन हुआ है, हम नियुक्ति को सपोर्ट करते हैं. ठीक कहा है, उनको सपोर्ट करना ही चाहिए. मैं छात्रों से सीधे कहूंगा कि अपना आंदोलन समाप्त करें. पढ़ने आए हैं, पढ़ाई पर ध्यान दें. उनको कर्मकांड नहीं पढ़ाना है. साहित्य पढ़ना है , उनसे पढ़ें. कर्मकांड पढ़ाना ही नहीं है , उसके लिए नियुक्ति ही नहीं हुई है.

वेवजह का तूल दिया जा रहा है

राजनीति करना तो ठीक है लेकिन बेवजह की राजनीति उचित नहीं है. जिनका विश्वविद्यालय और इस मामले से दूर-दूर तक कोई संबंध नहीं है वह भी टांग अड़ा रहे हैं. शंकराचार्य स्वरूपानंद के शिष्य अविमुक्तेश्वरानंद बीएचयू कैंपस पहुंच गए और कहा कि नियुक्ति अनुचित है.

विश्वविद्यालय प्रशासन संस्कृत विद्या धर्म विज्ञान संकाय की डेढ़ एकड़ जमीन को छोड़कर डॉ. फिरोज को संस्कृत पढ़ाने के लिए कहीं भी नियुक्ति कर दे. किसी को आपत्ति नहीं है. अविमुक्तेश्वरानंद का कहना है कि यह हमारे धर्म की उदारता है कि एक गैर हिन्दू संस्कृत का अध्ययन कर पाया.

यदि हमने गैर हिंदू का स्वागत करके नहीं पढ़ाया होता तो फिरोज संस्कृत का विद्वान नहीं बन पाता. इनकी बातों से तो ऐसा लग रहा है कि संस्कृत भाषा को सिर्फ हिंदू ही पढ़ सकता है. इसे उचित नहीं ठहराया जा सकता है. ज्ञानी से सिर्फ ज्ञान लीजिए , उसके धर्म , जाति और क्षेत्र पर मत जाइए , इसी में देश की भलाई है.

फिलहाल धरना खत्म

बीएचयू के संस्कृत विद्या धर्म विज्ञान संकाय में डॉ. फिरोज खान की नियुक्ति के विरोध में 15 दिनों से चल रहा छात्रों का धरना शुक्रवार (22 नवंबर,2019) की शाम को समाप्त हो गया. हालांकि, छात्रों ने आगे भी आंदोलन जारी रखने का ऐलान किया है. छात्रों ने बीएचयू प्रशासन से नियुक्तियों पर नियमों से संबंधित कई सवाल पूछे हैं. छात्रों ने कहा कि इन सवालों के जवाब मिलने के बाद आगे की रणनीति तय की जाएगी.

इलाहाबाद विश्वविद्यालय : मजहब की राह में रोड़ा नहीं है संस्कृत ,कई मुस्लिम विद्वान दिए

” ऐसा लग रहा है कि जातिगत श्रेष्ठता को सर्वोपरि रखने और अपने अहम को तुष्ट करने के लिए ही बीएचयू में विवाद को सोची समझी चाल के तहत जन्म दिया गया है “

काशी हिंदू विश्वविद्यालय (बीएचयू) के संस्कृति धर्म विज्ञान संकाय में साहित्य पढ़ाने के लिए नियुक्त किए गए डॉ. फिरोज खान को लेकर विवाद थम नहीं रहा है, जबकि हकीकत में स्कूल, कालेज और विश्वविद्यालयों में भाषा और धर्म का बंधन कभी नहीं रहा. हम इलाहाबाद विश्वविद्यालय की बात करते हैं. यहां किश्वर जबीं जसरीन दो साल तक संस्कृत विभाग की विभागाध्यक्ष रहीं.

उन्होंने 1980 में प्रो. आद्या प्रसाद मिश्र के निर्देशन में शोध किया. 1980 में ही इलाहाबाद विश्वविद्यालय में संस्कृत विभाग में प्रवक्ता के पद पर नियुक्त हुईं. 2014 में प्रोफेसर और 2014 से 16 तक विभागाध्यक्ष रहीं. 24 सितंबर 2017 को उनका देहांत हो गया.

संस्कृत में उनके कई लेख और शोधपत्र राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय पत्रिकाओं में प्रकाशित हो चुके हैं. इलाहाबाद विश्वविद्यालय के संस्कृत विभाग में सारा गुलशन हनीफ एमए अंतिम वर्ष की छात्रा हैं. वह सनातन धर्म का आधार माने जाने वाले वेदों का अध्ययन कर रही हैं.

वहीं फैजुलबारी , आवेश अहमद ग्रेजुएशन में तो चांद मोहम्मद संस्कृत में पीजी कर रहे हैं. संस्कृत से पीजी करने वाले इरफान सिद्दकी अब दिल्ली विश्वविद्यालय में संस्कृत विषय में शोध कर रहे हैं.

मुसलमान वेद पढ़ाते रहे हैं

इलाहाबाद विश्वविद्यालय में संस्कृत के विभागाध्यक्ष रह चुके प्रो. राम किशोर शास्त्री का कहना है कि देश में सैकड़ों मुस्लिम शिक्षक मिल जाएंगे जिन्होंने जीवन भर संस्कृत पढ़ी और दूसरों को पढ़ाया भी. प्रो. असहाब अली गोरखपुर विश्वविद्यालय में संस्कृत के विभागाध्यक्ष रहे और वेद भी पढ़ाया. अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय है , यहां तो संस्कृत विभाग ही नहीं होना चाहिए. इस विवि के संस्कृत के विभागाध्यक्ष प्रो. शरीफ इलाहाबाद विश्वविद्यालय के छात्र रहे हैं. इन्होंने यहीं से पीएचडी और डिलीट की थी. इलाहाबाद विश्वविद्यालय में ज्वाइन करने से पहले मैंने और मोहम्मद मेराज अहमद ने दिल्ली में रहकर आईएएस की तैयारी की थी. मैं इलाहाबाद विश्वविद्यालय चला आया और मेराज इन दिनों श्रीनगर विश्वविद्यालय में संस्कृत के विभागाध्यक्ष हैं. इलाहाबाद विश्वविद्यालय से ही संस्कृत में पीएचडी करने के बाद शाहीन जाफरी शिब्ली कॉलेज आजमगढ़ में एसोसिएट प्रोफेसर के पद पर कार्यरत हैं. डॉ. सरवले आलम इन दिनों मुसाफिरखाना इंटर कालेज सुल्तानपुर में लेक्चरर हैं. इलाहाबाद विश्वविद्यालय की पुरा छात्रा गजाला अंसारी राष्ट्रीय संस्कृत संस्थान लखनऊ में असिस्टेंट प्रोफेसर हैं. ये तो कुछ उदाहरण मात्र हैं. यदि खोज किया जाए तो देश के विश्वविद्यालयों और कॉलेजों में संस्कृत पढ़ाने और पढ़ने वाले बहुत से अध्यापक और छात्र मिल जाएंगे. बीएचयू में बेवजह मामले को तूल दिया जा रहा है.

उर्दू डिप्लोमा में शत प्रतिशत गैर मुस्लिम छात्र

इलाहाबाद विश्वविद्यालय के उर्दू विभाग में संचालित दो साल के उर्दू डिप्लोमा पाठ्यक्रम में मजहबी आधार पर छात्रों की गणना करने पर चौकाने वाले तथ्य सामने आए. विभागाध्यक्ष प्रो. शबनम हमीद के अनुसार यहां वर्तमान सत्र में 35 छात्र-छात्राएं डिप्लोमा की पढ़ाई कर रहे हैं , जिसमें शत प्रतिशत गैर मुस्लिम हैं. इस प्रकार देखा जाए तो भाषा का धर्म से कोई संबंध दूर-दूर तक नजर नहीं आता. ऐसा लग रहा है कि जातिगत श्रेष्ठता को सर्वोपरि रखने और अपने अहम को तुष्ट करने के लिए ही इस विवाद को सोची समझी चाल के तहत जन्म दिया गया है. ऐसा न होता तो देश के सभी विश्वविद्यालयों में विरोध होना चाहिए जहां मुसलमान संस्कृत पढ़ाते और पढ़ते हैं , लेकिन हम खुशनसीब हैं कि भारत में ऐसा नहीं होता , बीएचयू अपवाद हो सकता है.