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विजय शंकर पांडेय
बलिया शहर के टाउन हाल में इसी 27-28 सितंबर को इनवेस्टर समिट (उद्यम समागम) होने जा रहा है. यूपी इन्वेस्टर समिट की हालत देखते हुए बहुत लंबी चौड़ी उम्मीद नहीं बांधता…. मगर पहल होना ही अच्छी बात या शुरुआत है, बधाई बलिया के लोगों को…
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इसी टाउन हॉल में वरिष्ठ पत्रकार और बलिया लाइव के स्थानीय संपादक कृष्णकांत पाठक से बातचीत के दौरान एक बार मैंने कुछ मुद्दों का जिक्र किया था. मसलन रोजी रोटी के चक्कर में बलिया के ज्यादातर गांवों के लोग अब भी बड़े शहरों की ओर पलायन कर जाते हैं. उनमें से कितने प्रतिशत लोग वापस लौटते हैं? मेरा अनुमान है कि अब गांवों में वही बचा है, जो या तो अति सुविधा संपन्न व समृद्ध है, या फिर पान की गुमटी भी लगाने भर की ठौर किसी शहर में नहीं तलाश पाया. वजह कोई भी हो सकती है. वैसे नब्बे के दशक तक ज्यादातर लोग सिर्फ कमाने के मकसद से ही बाहर जाते थे. अल्टीमेटली वे रिटायरमेंट के बाद गांव लौटना ही टार्गेट रखते थे. कम से कम शादी विवाह करने गांव ही लौटते थे. मगर उदारवादी अर्थव्यवस्था का प्रभाव कहिए या लोगों के रहन सहन में परिवर्तन. 1992-93 के बाद धीरे धीरे लोग जहां काम धंधा कर रहे हैं, वहीं बस जा रहे हैं. यहां तक कि होटल लॉज से शादी विवाह का जो चलन शुरू हुआ लोग अब इस तरह के आयोजन भी वहीं करने लगे. एक वजह यह भी है शिक्षा और चिकित्सा की पर्याप्त सहूलियत यहां उपलब्ध नहीं है. नतीजतन बुढ़ापे में हैसियत होते हुए भी इलाज की सहूलियत से वंचित होने का डर सताता है. शिक्षा की कायदे की व्यवस्था नहीं रहेगी तो नाती-पोते को पास रखना नामुमकिन है.
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इस पर पाठक जी ने कई मार्के की बात कही. जैसे – जिले से बाहर वालों की बात छोड़िए… यहां तक कि बलिया के ही दूर दराज गांवों या तहसील मुख्यालयों पर नौकरी से रिटायर होने वाले प्रिंसिपल या अध्यापक भी रिटायरमेंट के बाद बलिया शहर में जमीन खरीद कर ही बस रहे हैं. इनमें शहर से मात्र आठ दस किलोमीटर की परिधि के गांवों के मूल निवासी भी शामिल हैं.
रोजगार के मामले में बलिया जिले की स्थिति बदतर है. जनपद में कल-कारखाने व उद्योग नहीं हैं. रसड़ा का चीनी मिल व कताई मिल. सेवायोजन कार्यालय में कुल 80,054 बेरोजगार पंजीकृत किए गए हैं. इनमें महिला बेरोजगार 32,020 और 48,034 पुरुष बेरोजगार शामिल हैं. पिछले पांच वर्ष में 7,016 युवाओं को रोजगार मिल चुका है. पिछले लोकसभा चुनाव से पहले तक सेवायोजन कार्यालय की तरफ से जिले में पांच साल के अंदर 37 रोजगार मेले का आयोजन किया जा चुका था. अगर गौर कीजिए तो कभी मऊ जिले में फोरलेन, सिक्स लेन में जमीन के मुआवजे के रूप में मिले एकमुश्त धन से पलायन पर रोक लगी थी और बहुत से लोगों ने इस धन का उपयोग रोजगार सृजन में किया था.
यहां मैं प्रसंगवश दो तीन घटनाओं का जिक्र करना चाहूंगा. मेरे पिता के एक घनिष्ठ मित्र कलकत्ता के जाने माने व्यवसायी थे. आज से तकरीबन ढाई-तीन दशक पहले उनसे मेरी मुलाकात हुई थी. मैं उन दिनों कलकत्ता में ही पत्रकारिता किया करता था. मैंने उनसे पूछा कि आपने यहां अपने कारोबार का इतना विस्तार किया है, फिर आप अपने जिले बलिया के बारे में कुछ क्यों नहीं सोचते? देखिए न बिड़ला ने पिलानी (राजस्थान) का काया पलट दिया. छोटे स्तर पर ही सही आप भी तो कुछ कर सकते हैं.
वो एक पल के लिए रुके – और फिर जो बोले वो आप भी जान लीजिए –
जानते हैं, यहां इतना सब करने के बाद सुकून से दो रोटी खाकर रात को सो जाता हूं. वहां इसे बढ़ाना तो दूर बचाने के लिए नाको चने चबाने पड़ जाएंगे – क्योंकि वहां टांग खिंचने वालों की कमी नहीं है.
1995-96 की बात है. चंद्रशेखर जी कलकत्ता शहर में थे. प्रभात खबर के प्रधान संपादक हरिवंश जी और जनसत्ता के वरिष्ठ पत्रकार कृपा शंकर चौबे जी ने ग्रेट इस्टर्न होटल में उनके लिए बौद्धिक विमर्श का आयोजन किया, जिसमें वहां के साहित्यकार/पत्रकार आमंत्रित थे. इत्तफाक से उस आयोजन में मैं भी पहुंचा था. परिचय के दौरान ही उन्होंने पूछा कि यहां बलिया वाले कितने हैं?
ज्यादातर पत्रकारों/साहित्यकारों ने हाथ उठा दिया. इसके बाद एक सज्जन उठ खड़े हुए और उन्होंने कहा – हमार घर त छपरा ह, लेकिन बलिया में हमार ससुराल बा. इस पर चंद्रशेखर जी ने ठठा कर हंस दिया और बोले – इ उलटे गंगा जी कईसे बहे लगली….? खैर हतना बलिया वालन के बीच में रऊवा तनी सावधान रहब! इसके बाद पूरा हॉल ठहाकों से गूंज उठा. उन्होंने मजाकिया अंदाज में ही आगे कहा कि पांचों रुपया बलिया वालन के खर्च हो जाई त मये जिला जान जाई…. नेतागिरी में त पूछहीं के नईखे…
साल 2007-2008 में मैं अमर उजाला वाराणसी से जुड़ा था. किसी काम से देहरादून पहुंचा. वहां अमर उजाला के ही एक साथी पत्रकार मुझे लेने पहुंचे. चूंकि उनके घर ही ठहरना था. सोचा, बच्चों के लिए कुछ खरीद लूं. सड़क पर ही ठीक ठाक तंबू कनात ताने एक फल वाला मिला. हल्के फुल्के अंदाज में बातचीत करते हुए हम लोगों ने कहा -भाई रेट सही लगाओ.
जवाब से अंदाजा लग गया कि वह बलिया का ही रहने वाला है. सो मैंने पूछ लिया – कहां के रहने वाले हो भईया?
बनारस की ओर गांव बा.
बनारस में कहवां?
बलिया में.
कौन गांव?
रऊवा कौना गांव के चिन्हब महाराज? हरदी थाना क्षेत्र में पड़ेला.
गउवां के नाव त बताव.
इत्तफाक से मेरे पड़ोसी गांव का नाम लिया.
जब मैंने अपने गांव का जिक्र किया तो वह बताया कि हम ओही गांव के एगो पंडी जी खेत जोतत बोअत रहनी हा.
केकर
उसने जवाब में मेरे ही परिजनों का नाम लिया.
मैंने कहां – यार एक बात बताओ, जब तुम्हें आम, अमरूद, केला और संतरा ही सड़क पर बैठ कर बेचना था तो यह काम बलिया में नहीं कर सकते थे, जो यहां इतनी दूर आकर देहरादून में बस गए.
ना हीं महराज, हरदी आ नीरूपुर ढाला पर दू एक बार कोशिश कइनी. जेकर मन करे उहे आके गुंडई करे लागे, केकरा केकरा से लड़ब. एहिजा कुल भाई मिलिके मेहनत करेनी जा. छोट मोट मकान आपन बनवा ले ले बानी जा, लइका बाचा पढ़त-लिखत बाड़न सन, कम से कम चैन से त बानी जा…
कल लखनऊ में एसएसपी कलानिधि नैथानी ने एक हैरतअंगेज मामले का खुलासा किया, जिसके मुताबिक बलिया और गाजीपुर के इंजीनियरिंग छात्र कैब लूट रहे थे, कैब बुक करके चालक की हत्या कर दिए. वे चुराए गए कैब बिहार के शराब तस्करों को सप्लाई किया करते थे. ऐसे में यह लिखने में कोई हर्ज नहीं महसूस हो रहा है कि अपने मिजाज की त्रासदी झेल रहा है बलिया समेत पूरा पूर्वाचल. प्राकृतिक तौर पर अपराधी न होते हुए भी अपने अह्म की तुष्टि के लिए पूरबियों की नई पीढ़ी यदा-कदा कानून हाथ में लेने से गुरेज नहीं कर रही. इसके बाद कुछ मनबढ़ लंबे हाथ मारने से भी नहीं चुकते. ऐसे ही कुछ युवा अपराध की दलदल में फंसते जा रहे हैं तो कुछ खुद को मॉडर्न दिखाने की ललक में अपराधियों के मोहरे बनते जा रहे हैं. ये रंगबाज दीमक की तरह धीरे-धीरे बलिया समेत पूरे पूर्वाचल की संपन्नता व व्यापार को चाटते जा रहे हैं. नतीजा आपके सामने है. पूर्वाचल में और उसमें बढ़ते अपराध कोढ़ में खाज का काम कर रहे हैं. हत्या, लूट, रंगदारी, अपहरण व बलात्कार सरीखे वारदातों की बढ़ती तादाद ने पूर्वाचल का इतिहास-भूगोल ही नहीं, अर्थशास्त्र को भी डावांडोल कर दिया है.
करीब दो दशक पहले नई दिल्ली के मावलंकर हाल में अखिल विश्व भोजपुरी सम्मेलन के सालाना जलसे को संबोधित करते हुए वरिष्ठ पत्रकार अच्युतानंद मिश्र ने कहा था कि महानगर ही नहीं, बीहड़ में भी आर्थिक तौर पर स्वावलंबी हो परचम लहराने का माद्दा भोजपुरी भाषियों में है, मगर दीप तले अंधेरे की कहावत चरितार्थ करता है इनका अपना घर, अपना इलाका. क्या वजह है कि यहां की प्रतिभाएं अन्यत्र रंग दिखाती हैं, जबकि यहां लाचार दिखती हैं? ये सवाल अब भी अनुत्तरित है.