ददरी मेला में हमार बाछा

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चंद्रेश्वर

(वरिष्ठ शब्द शिल्पी)

हर साल कातिक के पूरनमासी के मोका प पाँच -दस दिन पहिलहीं से नियाज़ीपुर में पशु मेला लागे सुरू हो जात रहे त गुरही आ चीनिया जिलेबी (लाल -पियर, भूअर) रसगुल्ला, कचउरी-पूड़ी, समोसा -छोला, लकठो,कुटुकी-पटउरी, मोतीचूर लड्डू, पेड़ा, आटा आ मैदा वाला खुरमा, छेना वाला खुरमा, टिकरी, बेलगरामी, सोन पापड़ी, बतासा (चीनिया) अस रंग -बिरंग के मिठाइयन आ नमकीन बेंजन (व्यंजन) के दोकानो सजे लागत रहे.

ददरी मेले में होता है पशु व्याारियों का आगमन
हाँड़ी में के भईं के अँवटल दूध के जमावल सजाव दही

हमनी के गाँव आशा पड़री से नियाज़ीपुर एक -डेढ़ कोस उत्तर अलंगे बा. ओकरा आगे जाइब त रउरा सबके गंगाजी के झगमग पानी दिखाई परे लागी. गंगा जी के एकदम अरारे प नियाज़ीपुर के एगो टोला बा — लाल सिंह के डेरा. अहीर लोग के डेरा ह. डेरा माने अस्थायी घर -दुवार. गाँव के बहरी, खेत -बधार के लगे. बाक़ी ई डेरा बाद में टोला में बदल जात रहन स. एह डेरा प एगो सरकारी प्राइमरी इसकूलो खुलल रहे, सन् साठ-सत्तर के दहाईं में. एहिजा से नाव से गंगा जी पार कइला प बलिया टाउन आ जात रहे. एहिजा के अहीर लोग लगहर जानवर में गाइ-भईं ज़ादा पालत रहे आ दूध -दही नाव का राहे गंगा मइया जी के पार क के बलिया टाउन तक ले जाके बेचत रहे. एहिजा के इसकूल में ढेर दिन तक हमार बाबूजी केदार पाँड़े हेड मास्टर रहल रहन. हेड मास्टर कहीं चाहे टीचर, एक मास्टर वाला इसकूल रहे ओहघरी ऊ. ई अस्सी के पहिले के बात ह. ओहिजा के अहीर दबंग रहे लोग. ऊ केहू के धौंस में ना रहत रहे लोग. ऊ केहू से बदला लेबे के होत रहे त अन्हरिया पख में धावा बोलत रहे लोग. ऊ लोग हमरा बाबूजी के सोझबक बाभन समझ के बहुते आदर -मान देत रहे. ओह गाँव के हाँड़ी में के भईं के अँवटल दूध के जमावल सजाव दही बचपन में हमहूँ खइले बानी, खिचड़ी आ होली में.

एह लहर में सामाजिक नेयाव के लड़ाई बहुते पाछा चल गइल

नियाज़ीपुर गाँव बाभन बहुल गाँव ह, बाभनो में पाठक उपाधि वाला सरजूपारी बाभन ढेर बा लोग. बहुत पहिले… सन् 1991 -92 के पहिले जब लाल किसुन अडवानी जी के रामरथ ना निकलल रहे, सोमनाथ से अजोधा जी तक वाला त एह गाँव के ज़ादा बाभन -पंडी जी लोग काँग्रेसी रहे. रामरथ के बाद त हिन्दुत्व के लहर बढ़ते गइल … एह लहर में सामाजिक नेयाव के लड़ाई बहुते पाछा चल गइल आ ओकर नया मसीहा लालू जी के लोग ज़ेल में डालि दिहल. बात ह त बात प बात आ जाला. हम ददरी मेला के बारे में लिखे जात रहीं आ पहुँच गइल बात सियासत प.

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युगांतरकारी लेखक भारतेन्दु हरिश्चंदर आपन भासन किसानन के सुनवले रहलन

ददरी मेला यूपी आ बिहार दूनो ओर लागेला. एह पार बलिया आ ओहपार बलिया. एह जगहिया के भिरगु छेत्र कहल जाला. एही भिरगु कुल के केतु माने पताका माने झंडा रहलन परसुराम मुनी. एह ददरी मेला के पहचान पूरा उत्तर भारत में बा. एहिजे के ददरी मेला में हिन्दी के युगांतरकारी लेखक भारतेन्दु हरिश्चंदर आपन भासन किसानन के सुनवले रहलन आ एह मेला में आपन नाटको खेलले रहन. भारतेन्दु हरिश्चंदर के पीढ़ी के हिन्दी के लेखक -कवि लोग आपन माटी, लोकजीवन आ लोकसंस्कृति से, आपन बोली -बानी से गहिरे जुड़ल रहे लोग. ओह लोग के सोर (जड़) आपन ज़मीन में बहुत नीचे तक गइल रहे, पताल तक! आजु लेखा ना, बिना सोर के, माटी के अंदर के रस से कटल. गाँव से दूर सहर में आके लोग ख़लिसा बौधिक बिमर्स में लागल बा आ ज़ादा से ज़ादा नीरस साहित्य के रचना क रहल बा. एकरा के नकली भा चोरुवा कहल जा सकेला. अब स्त्रिए बिमर्स के लीं ना. एह साहित्य के सामान्य गँवई भा सहरी नारी लो प केतना असर बा! ई सब लेखन के बहुलांस ज़मीनी हक़ीक़त से कटल बा. एगो समइया में भारतेन्दु नियर लेखक रहलन, जन से आ ज़मीन से जुड़ल, संबाद करे वाला, ना कि राजधानी में बइठ के अपना पत्रिका के दफ़्तर में गलचउर करे वाला.

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भईं -पाड़ी आ पड़रू के सिंगार -पटार क के, घुघूर -घाँटी बान्ह के

जे होखे, ई मेलवा अबो लागेला बाक़ी ओह में बएल आ बाछा के बिकरी लगभग-लगभग बने हो गइल बा जब ले किरसी, खेतीबारी मसीनी हो गइल. पहिले जब ई मेला लागत रहे त हमरा गाँव के दक्खिन -पूरूब आ पछिम के किसान लोग हमरे गाँव के सड़किया ध के मेला में जात रहे लोग. दिनभर आ रात भर रहता (रास्ता) चलत रहे. धूर उड़े मवेसिन के खूरन से. हमनी के देखीं जा कि ख़ूबे सजा-सजा के, अपना बएल -बाछा, गाइ-गोरू-बाछी, भईं -पाड़ी आ पड़रू के सिंगार -पटार क के, घुघूर -घाँटी बान्ह के, रंग -बिरंग के पगहा में लोग ले जात रहे. अब ऊ पशु सौन्दर्य के बिराट दृश्य पता ना कहँवा बिला गइल. लोगबाग मेला में बएल के, गाइ के, भईं के सिंग रँग के ले जात रहे भा ओकरा में सरसों के तेल लगा के, चमक पएदा क के. एक बेर हमहूँ आपन एगो पोसल बाछा ले के मेला में गइल रहीं, छोटका चाचा के साथ. हमार समउरिया चचेरा भाई असोको जी गइल रहलन. हमनी के बहुते उछाह -आ उमगत मन से मेला में गइल रहीं जा, बाक़िर बाछा बिकला के बाद जब चाचा कहलन कि हई ल लो दस -दस रूपिया आ जा के मेला घूम के आव लोग त हमनी के मेला में जिलेबी भा कँवनो मिठाई अरघल ना. हमनी के सोचले रहीं जा कि ख़ूबे मेला में मस्ती मारब जा, कठघोड़वा आ चरखी प चढ़ब जा, गुलाबजामुन आ रसगुल्ला खाइब जा बाक़ी ई सब अरमान सँचल के सँचले रहि गइल. बाछा से एतना लगाव हो गइल रहे कि जब ओकरा पगहा आन गाँव के गहँकी के धरावल गइल त हमनी के भोंकार पार के रोवे लगनी जा. हमरा ढेर ना एतने ईयाद बा कि आजु से चालीस -पचास साल पहिले ओह सोकन आ डापुट बाछा के दाम लागल रहे एक हज़ार रूपिया. हमरा ईहो ईयाद बा कि ढेर दिन तक हम बाछा ख़ातिर उदास रहनी. दुवार सून लागत रहे आ हमहीं ना घरभर ओकरा के ईयाद करे. ओकरो माई सोकनी गइयो दू-चार दिन तक चारा कम खइले रहे, सूँघ के छोड़ देत रहे. अब ई सब जिनगी के बात भूत में बदल गइल …ख़िस्सा -कहनी बन गइल. 

(महर्षि विश्वामित्र की तपोभूमि और लिट्टी -चोखा के लिए मशहूर पंचकोसवा की धरती बक्सर के मूल निवासी हैं लेखक, संप्रति यूपी के बलरामपुर में एमएलकेपीजी कॉलेज में हिंदी विभागाध्यक्ष / एसोसिएट प्रोफेसर हैं और लखनऊ में रहते हैं, प्रस्तुत टिप्पणी उनके फेसबुक कोठार से साभार).