आरोग्य और मोक्ष प्रदान करता है, ददरी का कार्तिक पूर्णिमा स्नान: कौशिकेय

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भृगु-दर्दर क्षेत्र में कार्तिक पूर्णिमा को सभी देवी-देवता, पवित्र तीर्थ,नदियां आती हैं

बलिया। कार्तिक मास में तीर्थराज हो जाता है भृगुक्षेत्र बलिया. काशी से भी एक जौ ऊँचा आध्यात्मिक महात्म्य हो जाता है इस भृगु- दर्दर क्षेत्र का. कार्तिक मास में इस भू भाग के महात्म्य पर प्रकाश डालते हुये भृगुक्षेत्र महात्म्य के लेखक, साहित्यकार शिवकुमार सिंह कौशिकेय ने कहा कि पद्मपुराण दर्दरक्षेत्र महात्म्य खण्ड के अनुसार

कार्तिके समनुप्राप्ते तुला संस्थे दिवाकरे. मुनयः सिद्ध गन्धर्वाः सा विद्याधर चारणाः. ऋषयः पितरो देवाः सस्त्रीकाश्च महान्वया. तीर्थराजादि तीर्थानि सरांसि च नदी नदाः. पम्पा वाराणसी माया कॉच्ची कान्ति कलावती. अयोध्या मथुरा अवंतीपुरी द्वारावती तथा. एताच्श्रन्याषु शततः स्वैनः क्षपणकाम्यया. दर्दर समनुप्राप्य सर्वतिष्ठन्ति कार्तिके.

कार्तिक मास में जब सूर्य तुला राशि में होते है. तो सृष्टि के सारे ऋषि, मुनि, सिद्ध, गंधर्व,पितर, विद्याधर, विद्वान सभी तीर्थराज प्रयाग सहित सभी तीर्थ उनकी पवित्र नदियां, सरोवर, हरिद्वार, काशी, कांचीपुरम, पम्पा, अयोध्या, मथुरा, अवंतिकापुर आदि सभी मोक्ष प्रदान करने वाले पुण्यदाता तीर्थ यहाँ पूर्णिमा पर्यन्त निवास करके अपने पाप प्रक्षालित करते हैं.
भृगु-दर्दर क्षेत्र में कार्तिक मास का कल्पवास शरद पूर्णिमा के दिन से प्रारंभ हो जाता है. कार्तिक कृष्ण एकम से संतों के खालसे गंगा तट पर सजने लगते हैं. इसका शुभारम्भ सिद्ध संत स्वामी रामबालक दास जी के गंगा तट पर शरद पूर्णिमा को कल्पवास का ध्वजारोहण होता है. इस दिन से सम्पूर्ण भृगुक्षेत्र में गंगा तट पर विभिन्न मत पंथों के संत महात्मा अपने-अपने खालसे डालकर कल्पवास करते हैं. जिसका विश्राम कार्तिक पूर्णिमा स्नान के साथ होता है.
कार्तिक शुक्ल पक्ष की प्रथमा तिथि से भृगु दर्दर क्षेत्र की पंचकोशी परिक्रमा प्रारंभ होती है.

पंचकोश गतान्देवानृषिंश्रापि प्रदक्षिणा. प्रदिशिणीकृत तेन सप्तद्वीपवती मही.

पृथ्वी के सप्तद्वीपों की प्रदक्षिणा के बराबर पुण्य फल देने वाली यह पंचकोशी परिक्रमा यात्रा महर्षि भृगु मंदिर, भृगुआश्रम से प्रातः काल गर्गाश्रम के लिये प्रस्थान करती है.

गर्गाश्रमात्समारम्भं यावत्पराशराश्रमं , तावत् क्षेत्रं विजयानीयत पंचकोशं महत फलं.

योगेश्वर भगवान श्रीकृष्ण के कुलगुरु गर्ग ऋषि के आश्रम सागरपाली से कपिल तीर्थ कपूरी, विमलतीर्थ देवकली, कुशहृदविंद सुरहाताल, कुशेश्वर-क्षितेश्वर नाथ छितौनी, महाभारत महाकाव्य के रचयिता वेदव्यास जी पिता पराशर ऋषि के आश्रम परसिया, हंसप्रपत्तन हाँसनगर की परिक्रमा करते हुए छठवें दिन पुनः भृगु मंदिर बलिया पहुँच कर यह परिक्रमा पूर्ण होती है.
भृगुक्षेत्र में कार्तिक मास के कल्पवास का सबसे बड़ा आयोजन कार्तिक पूर्णिमा को गंगा-सरयू-तमसा नदियों के संगम धर्मवापी पर स्नान से सम्पन्न होता है. इसके साथ ही यहाँ भारत प्रसिद्ध ददरी मेला प्रारंभ हो जाता है.

भृगु-दर्दर क्षेत्र में कार्तिक पूर्णिमा स्नान महात्म्य के संदर्भ में कौशिकेय ने बताया कि गंगाद्वारं हरिद्वारं प्रयागं स्नान मुक्तमं. वाराणसी दर्दरं च पंचस्थानं विमुक्तदम्.

गंगा द्वार गोमुख, हरिद्वार, प्रयागराज, काशी-वाराणसी एवं दर्दर क्षेत्र बलिया इन पाँच पवित्र तीर्थों में स्नान करने से मुक्ति की प्राप्ति होती है.

तवापि दर्दर क्षेत्रं गंगा सरयू संगमं, दर्शनं स्पर्शन्नस्न्नरों नारायणे भवेत.

परन्तु इन सभी तीर्थ में दर्दर क्षेत्र ऐसा तीर्थ है जिसके दर्शन एवं स्पर्श मात्र से मनुष्य सभी पापों से मुक्त हो नारायण स्वरुप हो जाता है.

सर्वयज्ञेषुयत्पुण्यं सर्वदानेषु यत् फलम् । दर्दरं स्पर्शनाज्लजनतुर्लभते नात्र संशयं.

सभी प्रकार के यज्ञों को करनें, सभी प्रकार दान करने से जो पुण्य फल प्राप्त होता है. वह पुण्य दर्दर क्षेत्र के स्पर्श मात्र से प्राप्त हो जातें हैं. पुराण कहता है, इसमें संशय नहीं है.

दर्दरक्षेत्रेषु गन्तु कृतधियो जनाः . रुदन्ति सर्वपापानि व्याकुलीभूत मानसाः.

जो मनुष्य कार्तिक पूर्णिमा स्नान के लिये दर्दर क्षेत्र में आने के लिये प्रस्थान करता है. तभी से उसके सारे पाप, भूत प्रेतादि रोने लगते हैं, व्याकुल हो जातें हैं.

या पाति योगयुक्तानां काश्यां वा मरणे रणे. सा गति स्नानमात्रेण कलौ दर्दर संगमे.

कौशिकेय ने कहा कि जिस मोक्ष- पुण्यफल की प्राप्ति काशी में योग साधना करते हुए मृत्यु को प्राप्त करने और रणभूमि में वीरगति को प्राप्त से मिलती है. वही मोक्ष-मुक्ति कलियुग में भृगु- दर्दर क्षेत्र के गंगा-सरयू-तमसा संगम पर कार्तिक पूर्णिमा को स्नान करने से प्राप्त होती है .

पुष्करे नैमिषे क्षेत्रे, यत्पुण्यं वसतांनृणाम् . षष्टि वर्ष सहस्त्राणं काशीवासेषु यत्फलम् .

जो पुण्य फल पुष्कर, नैमिषारण्य तीर्थों के से, साठ हजार वर्षों तक काशीवास करने से प्राप्त होता है. वही पुण्य दर्दर क्षेत्र में कार्तिक पूर्णिमा को स्नान करने मात्र से प्राप्त हो जाता है.
पाँच हजार ईसापूर्व से चली आ रही कार्तिक पूर्णिमा स्नान की परम्परा के वैज्ञानिक अध्ययन के बारे कौशिकेय ने बताया कि इसके पीछे भृगु संहिता के रचयिता महर्षि भृगु की ज्योतिष कालगणना और खगोलीय परिस्थितियों के परिशीलन जो तथ्य सामने आए हैं. उसके अनुसार भृगुक्षेत्र का यह भू भाग पृथ्वी के ऐसे क्षैतिज पर अवस्थित है कि शरद पूर्णिमा से लेकर कार्तिक पूर्णिमा तक सूर्य एवं चन्द्रमा की किरणें यहाँ की नदियों में अमृत तुल्य आरोग्यदायिनी ऊर्जा उड़ेलती हैं. जिसका सीधा लाभ यहाँ कल्पवास, स्नान करने वाले लोगों को मिलता है. कौशिकेय ने कहा कि पूर्वांचल की परम्परा है कि शादी के बाद पहली बार अपनी बेटी को ससुराल भेजने के लिये उनके माता- पिता अपनी बेटी को ददरी नहलाने अवश्य ले आते हैं. लोकमान्यता है कि इससे बेटियों की सारी बलैया दूर हो जाती है और उसकी गोद शीघ्र भर जाती है. पूर्वकाल की इस परम्परा का एक कारण यहाँ लगने वाला ददरी मेला भी है. जहाँ किसान परिवार की बेटियों की बिदाई का सारा सामान एक ही जगह पर मिल जाता है.