भृगु क्षेत्र में स्नान से मिलती है भुक्ति और मुक्ति

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डॉ. शिव कुमार मिश्र

shiv_kumar_mishraमनुष्य एक विचारवान प्राणी है. यह एक ओर जहां अपनी सांसारिक आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए सचेष्ट और प्रयत्न शील रहता है, वहीं दूसरी ओर अपनी मुक्ति के लिए भी आतुर और चिंतित रहता है. ऋषि-महर्षियों चिंतकों मनीषियों और धर्म धुरंधरों ने मानव की इसी चित्त-वृत्ति को देखते हुए लोकमंगल की भावना से समय समय और स्थान स्थान पर मुक्ति के साधन और स्थल को भी रेखांकित किया है.

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वैसे तो प्रत्येक तिथि, वार, मास और स्थान का अपना महत्व है. विधाता निर्मिति कोई कोना ऐसा नहीं है, जिसका कुछ-न-कुछ उपयोग या महत्व न हो, फिर भी कतिपय ऐसी चीजें समय मास और स्थान हैं, जिनका कुछ विशेष महत्व दर्शाया गया है. धार्मिक दृष्टि से भी क्षेत्र और कार्तिक मास का विशेष महत्व है. कार्तिक महीने में सूर्य के तुला राशि में संस्थित होने पर प्रात:काल स्नान मात्र करके बिना किसी अन्य जप, तप, पूजा, पाठ या प्रयास के ही मनुष्य मुक्ति पा सकता है.

कार्तिक मासि ये नित्यं तुला संस्थे दिवाकरे। प्रात:स्नास्यंति  ते मुक्ता महापातकीनो$पि च।। भगवान शिव के त्रिशूल पर विराजमान काशी कांची अवंतिका मथुरा मायापुरी अयोध्या और द्वारिकापुरी ये सात पुरियां मुक्तिदायिनी है। अयोध्या मथुरा माया काशी कांची अवंतिका। पुरी द्वारावती चैव सप्तैता मुक्ति दायिका ।।

बलिया अभी कुछ साल पहल तक वाराणसी मंडल अंतर्गत ही था. बलिया जनपद को भी मुक्तिदा कहना उचित ही है. महर्षि भृगु की तपस्थली तथा राजा बलि की यज्ञ स्थली बलिया निर्विवाद धार्मिक महत्व का स्थान है. कालांतर में इसका तीन चौथाई भाग अरण्यमय तथा शेष भाग जल युक्त तथा ऋषि-महर्षि रितुओं की अनुकूलता प्रतिकूलता को ध्यान में रखते हुए समय समय पर अपना आश्रम स्थल परिवर्तित करते रहते थे. उनके आश्रम नगर के कोलाहल से दूर शांत वातावरण में नदियों के किनारे या उनके आसपास हुआ करते थे.

चातुर्मास में ऋतु की अनुकूलता के कारण ऋषिगण प्राय: पहाड़ों और नदियों से दूर इसी क्षेत्र में अपनी कुटी बनाकर तपस्या करते थे. भृगु, गर्ग, परासर, गालव, वशिष्ठ, अत्रि, कौशिक, गौतम, आरुणि, दर्दर और बाल्मीकि आदि ने यहां तपस्या की थी. सर्वप्रथम महर्षि भृगु ही यहां पधारे थे और सर्वाधिक प्रभावशाली थे, अतः इस क्षेत्र की ख्याति भृगुक्षेत्र के रूप में हुई. पवित्र कार्तिक महीने में महर्षि भृगु के शिष्य दर्दर जिनके नाम पर ददरी मेला लगता है, द्वारा स्थापित संगम पर स्नान कर दर्दर सहित भृगु का दर्शन करने और गंगा जल चढ़ाने का बहुत महत्त्व है.

दर्दरं समनुप्राप्य ये मज्जंति च  संगमें। कुलकोटिम समुद्धृत्य वैष्णवं पदमाप्नुयात।।