चंद्रशेखर के कारण बना जेपी स्मारक

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हरिवंश (वरिष्ठ पत्रकार/सांसद)

अद्भुत संकल्प, अटूट निष्ठा और अनवरत प्रयास का नतीजा है, जयप्रकाश नगर (जेपी की जन्मभूमि) में जेपी स्मारक. अकेले चंद्रशेखर के साहस और निष्ठा से ही जेपी की जन्मभूमि में अनूठा स्मारक बनाने का स्वप्न साकार हुआ है. वस्तुत: यह स्मारक असंभव कल्पना का साकार रूप है, जो घोर देहात के वाकिफ नहीं हैं, उन्हें बिना यहां का भूगोल जाने शायद इस कथन पर यकीन न हो. हिंदुस्तान की दो मशहूर नदियों गंगा और घाघरा के बीच बसा है सिताबदियारा. यहीं दोनों नदियों का संगम भी है. उत्तरप्रदेश और बिहार की सीमा यहीं मिलती है. इस गांव में कुल 27 टोले हैं. इन्हीं में से एक टोले जयप्रकाश नगर में जेपी का पुश्तैनी घर है. देश के सबसे बड़े गांवों में से यह भी एक है. बलिया, आरा और छपरा जिलों में टोले विभाजित हैं. भयंकर बाढ़ यहां के बाशिंदों की नियति है. प्रतिवर्ष बाढ़ के दिनों 4 माह तक यह गांव टापू बन जाता है.

1978 में अंतिम बार गांव आने के लिए तरस रहे थे जेपी

वर्ष में एक ही फसल होती है. नदियों में चार-मुहाने में परिवर्तन से सैकड़ों घर और खेत प्रतिवर्ष पानी में गिरते हैं. लेकिन कठिन परिस्थितियों में जीने के अभ्यस्त यहां के बाशिंदों के चेहरों पर रत्ती भर भी शिकन नहीं आती. सरकार की नजरों में यह आज भी पराया टापू है. आने-जाने के लिए पहले नाव से नदियों को पार कर मीलों रेत में पैदल चलना ही एकमात्र विकल्प था. बाहर से कोई सामान लाना-पहुंचाना वस्तुत: दुष्कर था. इस प्राकृतिक और भौगोलिक संरचना के कारण आवागमन और बाहरी दुनिया से असंपृक्त यह टापू सरकार की नजर से भी ओझल ही रहा. इस कठिन रास्ते को भी तय कर जेपी निरंतर अपने गांव आते थे. उन्हें गांव से बेहद लगाव था. 1978 में अंतिम बार गांव आने के लिए वह तरस रहे थे. चंद्रशेखर से उन्होंने गांव ले चलने का अनुरोध भी किया. वह आये भी और अश्रुपूरित आंखों और भींगे मन से गांववालों से विदा ली. उस वक्त उत्तरप्रदेश-बिहार के मुख्यमंत्री, अनेक केंद्रीय मंत्री भी यहां आये और एक-दूसरे से होड़ ले कर इस गांव के विकास की लंबी-चौड़ी घोषणाएं कीं, लेकिन ये कोरे आश्वासन थे. जेपी का सपना था कि उनका गांव देश का एक आदर्श गांव बने.

 

गांवों में भी इस शहरी शोषक संस्कृति के लुटेरे काबिज हो गये

विनोबा भावे, आचार्य कृपलानी, बीपी कोइराला, अच्युत पटवर्द्धन जैसे अनेक मशहूर नेता, चर्चित चिंतक-बौद्धिक और विदेशी राजनेता-लेखक पत्रकार उनके साथ यहां आये. आवागमन की कठिनाइयों से रूबरू होते हुए और मीलों पैदल चल कर. इन लोगों के यहां आने पर सरकारी अमला सक्रिय होता था. लेकिन कभी भी जेपी ने सरकार से अपने गांव के लिए विशेष काम करने या आवागमन के लिए सड़क बनाने के लिए नहीं कहा. अपने गांव में हुलस कर जेपी बाहरी अतिथियों का आवभगत करते थे. गांधी की तरह जेपी को भी गांवों की सादगी, सुलभ और छलकपट रहित संस्कृति से जीवनरस मिलता था. वह भी मानते थे कि भारत गांवों में बसता है. तब गांवों को आज के शासकों की तरह राजनेता, गुलामी-पिछड़ेपन और शोषण के द्वीप नहीं मानते थे. अब गांवों के प्रति शहरों के लोगों का भाव साम्राज्यवादी हो गया है. इस शहरी नजरिये ने गंवई संस्कृति का गला घोंट दिया है. गांवों में भी इस शहरी शोषक संस्कृति के लुटेरे काबिज हो गये हैं. जेपी का गांव चोरी-चमारी, हत्या, डकैती, अगड़ा-पिछड़ा संघर्ष, घृणित खूनी राजनीति से परे था, अब वह भी इस दुष्चक्र में सराबोर हो रहा है.

पानी कीचड़ पार कर चंद्रशेखर अक्सर यहां आते थे
जेपी के मरने के बाद केंद्रीय और राज्य सरकारों ने फिर बढ़-चढ़ कर इस गांव को आदर्श बनाने की घोषणाएं की, लेकिन एक सड़क तक नहीं बनी. अंतत: चंद्रशेखर ने पहल की. 1985 में चंद्रशेखर के प्रयास से ही जेपी स्मारक प्रतिष्ठान का गठन हुआ. जेपी के सहयोगी जगदीश भाई इसके मंत्री बने और अध्यक्ष चंद्रशेखर. इस प्रतिष्ठान ने जेपी के भतीजे से उनका पुश्तैनी बागीचा-जमीन आदि खरीदा. जगदीश भाई यहीं स्थायी रूप से फिर रहने लगे. चंद्रशेखर पैदल, पानी-कीचड़ पार कर निरंतर इस गांव में आते रहे, देश के मशहूर वास्तुविदों से जेपी स्मारक का खाका तैयार कराया. 1985 में ही इस प्रतिष्ठान की देख-रेख में स्मारक निर्माण में हाथ लगा. बंबई की मशहूर वास्तुविद श्रीमती ललितादास असुविधाओं के बीच लगातार यहां कई महीने रहीं. बंबई के मशहूर शिल्पकार बाघ ने जेपी की मूर्ति बनायी. 11 अक्तूबर ’85 को इस स्मारक का उदघाटन हुआ. जेपी और स्वतंत्रता आंदोलन के दुर्लभ चित्र इसमें लगाये गये. एसएम जोशी, नाना गोरे, मधु दंडवते आदि अनेक मशहूर नेता यहां आये. इस अवसर पर कर्णाटक के मुख्यमंत्री रामकृष्ण हेगड़े ने जेपी ट्रस्ट को 25 लाख रुपये देने की घोषणा की. तब से प्रतिवर्ष जेपी के जन्म दिन पर यहां समारोह आयोजित किये जाते हैं. चंद्रशेखर खुद मौजूद रहते हैं. पिछले वर्ष तत्कालीन राष्ट्रपति ज्ञान जैल सिंह यहां आनेवाले थे, लेकिन उत्तरप्रदेश सरकार के असहयोग के कारण वह नहीं पहुंच सके.

अनूठे राजनेता काशीनाथ मिश्र भी महीनों यहां जमे रहे
प्रभावती जी ने बहुत पहले गांव में ही एक लाइब्रेरी के लिए एक अलग व अनूठे भवन निर्माण कराया. महीनों वह खुद वहां जमे रहे. पत्थर हटाने, ईंट ढोने से लेकर हर काम में खुद मुस्तैद. सुबह पांच बजे से रात 12 बजे तक वह मजदूरों-श्रमिकों के साथ ही इस काम में डटे रहे. रात-दिन इस काम में खटनेवाले जपा कार्यकर्ता द्विजेंद्र कुमार मिश्र कहते हैं कि ‘चंद्रशेखर जी के श्रम से हम लोग प्रेरित होते हैं.’ सिंगरौली से आये बीरेंद्र सिंह ‘मस्त’ बताते हैं कि ‘आधी रात को भी यहां आनेवालों के ठहरने-खाने के लिए चंद्रशेखर खुद तत्पर रहते हैं.’ उत्तरप्रदेश के पूर्व सूचना मंत्री और अनूठे राजनेता काशीनाथ मिश्र भी महीनों यहां जमे रहे. उनकी सहजता और सामयिक घटनाओं पर स्थानीय भाषा में उनका पैना विश्लेषण सुन कर लोग कठिनाइयों के बीच भी उत्फुल्ल थे. जेपी के अनन्य सहयोगी चंद्रिका जी महीनों से खाने-पीने की परवाह किये बिना यहां कामकाज में लगे रहे. सैकड़ों मजदूर रात-दिन इस स्मारक लाइब्रेरी को सजाने-संवारने में खट रहे थे. भारत के किसी पिछड़े और आवागमन से कटे गांव में शायद ही ऐसा अनूठा-अद्भुत भवन या स्मारक हो.

बक्सर स्टेशन पर तकरीबन 10 हजार लोग उनकी अगवानी के लिए मौजूद थे
इस वर्ष इस लाइब्रेरी का उदघाटन ज्ञानी जैल सिंह करनेवाले थे. राज्य सरकार से विमान उपलब्ध नहीं कराये जाने और केंद्र सरकार (रेल मंत्रालय) द्वारा ट्रेन में सैलून देने का आश्वासन दे कर अंतिम क्षणों में मुकर जाने के कारण उन्हें द्वितीय श्रेणी (वातानुकूलित) से दिल्ली से बक्सर आना पड़ा. 10 वर्षों बाद ज्ञानी जी ट्रेन में सवार हुए थे. बक्सर स्टेशन पर उतरते ही उनका भव्य स्वागत हुआ. बक्सर से जयप्रकाश नगर (करीब 100 कि.मी.) के बीच हजारों स्वागत द्वार बने हुए थे. ज्ञानी जी को देखने के लिए सुबह से ही लोग उमड़ पड़े थे. बक्सर स्टेशन पर तकरीबन 10 हजार लोग उनकी अगवानी के लिए मौजूद थे. बीच में ही अस्वस्थ हो जाने के कारण ज्ञानी जी को बलिया में ही रुकना पड़ा. उनके बीमार होने पर सरकारी मशीनरी हरकत में आयी. हेलीकॉप्टर-विमान से उन्हें दिल्ली पहुंचाया गया, लेकिन जेपी के गांव के लिए उन्हें ये सुविधाएं मुहैया नहीं करायीं. डॉक्टरों की राय थी कि अगर यात्रा में उन्हें थकान नहीं होती, तो वह अचानक अस्वस्थ नहीं होते. जो लोग मानते हैं कि चंद्रशेखर चुक रहे हैं, उन्हें यह जान कर सदमा लगेगा कि जेपी के जन्मदिन के अवसर पर चंद्रशेखर के नेतृत्व में इस बार अभूतपूर्व सभा हुई. मधुदंडवते, रामकृष्ण हेगड़े समेत जपा के अधिकांश वरिष्ठ नेता यहां आये. इस अवसर पर आत्माराम द्वारा जेपी पर बनायी गयी फिल्म भी दिखायी गयी. कवि-सम्मेलन और सांस्कृतिक कार्यक्रम भी हुए. अब चंद्रशेखर की कल्पना है कि जेपी स्मारक निर्जीव केंद्र ही नहीं रहे और यहां महज रस्म अदायगी ही न हो, बल्कि सामाजिक परिवर्तन और संघर्ष में इसकी निर्णायक भूमिका हो. इसके लिए समान विचार और समानधर्मा लोगों से वह विचार-विमर्श में जुटे हैं. (साभार – प्रभात खबर)

 

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