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विधानसभा चुनाव 2017 -हाल-ए 363 बैरिया
वीरेंद्र नाथ मिश्र
बैरिया (बलिया)। पहले का द्वाबा और अब के बैरिया विधानसभा क्षेत्र में स्वयंभू टपकते नेताओं के आपाधापी में इस विधानसभा क्षेत्र की जनता उलझ कर रह गई है. आजादी की लड़ाई में अहम भूमिका निभाने वालो अथवा जनसेवा के माध्यम से आने वाले नेताओं को अपने क्षेत्र की बागडोर सौपने वाली द्वाबा की जनता अब विकास के मुद्दों से अलग जातीयता और अगड़े-पिछड़े की लहर तथा पार्टी के द्वंद में अपनी मौलिकता से भटक गई है.
यही वह आवाम है जो कभी राम राज्य परिषद से प्रतिनिधित्व करने के लिए आए इलाके के परम पूजनीय स्वामी खपडिया बाबा महाराज को किनारे करते हुए, तो कभी के कालखंड में विधानसभा के लिए आये रसूखदार लाल वीरेंद्र विक्रम सिंह को नकार कर जनसेवक चुनना पसंद किया. अब वह हालात नहीं है. आज जब विधानसभा चुनाव 2017 की रणभेरी बज चुकी है, तो हमेशा की तरह राजनीति के मायने में प्रखर बैरिया विधानसभा क्षेत्र के गांव-गली, खेत, पगडंडी, चौपालों से लेकर चट्टी, चौराहे तक सब जगह राजनीतिक चर्चा ही प्रमुख है.
इन बहस मुहायसो में सबसे बड़ा मुद्दा यही है कि कौन किस पार्टी से आ रहा है,या कौन प्रत्याशी किस जाति से है. सेवा के क्षेत्र से आने वाले प्रत्याशी से मैदान खाली है. प्रमुख आधार जाति और दूसरे नंबर पर पार्टी है. इन दोनों को प्रत्याशी से हटा देने पर उसका व्यक्तित्व शून्य हो जा रहा है. ऐसा ही नहीं लोग मौजूदा प्रदेश और देश में चल रही राजनीतिक दुर्दशा पर भी चर्चा करने में भी पीछे नहीं हटते. चर्चा में है कभी टिकट देने का सामर्थ्य रखने वाले राजनाथ सिंह, ओमप्रकाश सिंह अपने बेटों को टिकट दिलवाने के लिए जो जो कर्म कर रहे हैं, वह लोगों से छिपा नहीं है. ऐसे में यहां से गए प्रत्याशियों की टिकट के दौड में क्या दशा होगी, इस पर भी यहा मंथन चल रहा है.
जब मुलायम सिंह यादव अपने चहेतों को टिकट दिलवाने के लिए सूची अपने बेटे के यहां प्रस्तुत कर रहे हैं, तो कौन टिकट पा कर आएगा इसके लिए अनिश्चितता की स्थिति बनी हुई है. घोषित अथवा संभावित प्रत्याशी चाहे किसी दल के हो जाति के बाद पार्टी ही उनका सामर्थ्य माना जा रहा है. जिसके पीछे वजह यही है कि इन लोगों ने बैरिया की आवाम के बीच समय नहीं दिया. लखनऊ व दिल्ली की रंगीनियों में ही बड़े नेताओं से अपना व्यवहार बनाते रहें और वही अपना समय बिताये है. बैरिया विधानसभा क्षेत्र को हॉलीडे प्लेस बनाकर चले गए. कभी-कभार जब आए तो सेवा का स्वांग कर एक कर्मकांडी स्वरूप प्रस्तुत कर दिये.
दूसरी तरफ जो राजनीतिक कार्यकर्ता टिकट की दौड़ में शामिल है अगर विधानसभा क्षेत्र में रहे भी तो उनकी जनता के सुख दुख कष्ट पीड़ा संघर्षों से कोई लगाव नहीं रहा. जो लोग जनता की समस्याओं से जुड़ाव रखे रहे,जनता के साथ रहे और टिकट की दौड़ में लगे. तो पार्टी शीर्ष नेतृत्व ने उन्हें महत्व ही नही दिया. यहां किसी का कद जाति और पार्टी से इतर आदमकद नहीं बन सका, कि बिना जाति और पार्टी के हम सेवा के बूते जनता का सिरमौर बन पायेगे. ऐसा आत्मविश्वास किसी के पास नही. जाति और पार्टी की बैसाखी बिना सेमर के फूल जैसे. दूसरी तरफ राजनीतिक दलो की भी हालात इसी तरह है. जाति का आधार न हो तो निराधार है. परिणाम यह है विधायक बनने की ख्वाहिस मे बेशुमार लोग है, हालात है कि बैरिया विधानसभा में आसन्न विधानसभा चुनाव के लिए हर राजनीतिक दल विद्रोह के ज्वालामुखी पर बैठ चुका है. बसपा में थोड़ा कम तो सपा और भाजपा में घनघोर. जातिवाद और पार्टी के आगे विकास की बात बेमतलब सी हो गयी है. (Cartoon by Ashok Pandey)