साहित्य के पुरोधा के गांव को तारणहार का इंतजार

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लोक शिल्पी भिखारी ठाकुर की प्रासंगिकता 

छपरा (बिहार) से लवकुश सिंह

लोक साहित्य व संस्कृति के पुरोधा, भोजपुरी के शेक्सपियर का गांव कुतुबपुर काश. स्थानीय सांसद व केन्द्रीय राज्य मंत्री राजीव प्रताप रूड़ी के सांसद ग्राम योजना के तहत गोद में होता तो शायद पुरोधा के गांव को तारणहार की प्रतीक्षा नहीं होती. गंगा नदी नाव से उस पर छपरा से करीब 25 किलोमीटर दूर स्थित कुतुबपुर गांव आज भी अंधेरे में है. कार्यक्रमों की रोशनी व राजनेताओं का आश्वासन भी उस गांव को रोशन नहीं कर सका. शायद श्रद्धांजलि सभा और सांस्कृतिक समारोह भी कुछ लोगों तक सीमित है, वरना सरकार दो फूल चढ़ाने में भी भिखारी ही रहा है.

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आस-पास दर्जनों गांव, हजारों की बस्ती, तीन पंचायतों में एक मात्र अपग्रेड हाईस्कूल. वह भी प्राथमिक विद्यालय से अपग्रेड हुआ है. प्रारंभिक शिक्षक और पढ़ाई हाईस्कूल तक. आगे की पढ़ाई के लिए नदी इस पर आना होता है. कुछ बच्चे तो आ जाते हैं, बच्चियां कहां जाएं. कुतुबपुर से सटे कोट्वापट्टी रामपुर, रायपुरा, बिंदगोवा व बड़हरा महाजी अन्य पंचायतें हैं. लोगों की जीविका का मुख्य आधार कृषि है. अब नदी इनके खेतों को निगलने लगी है. 75 फीसद भूमिखंड में सरयू, गंगा नदी का राग है. टापू सदृश गांव है. 2010 से निर्माणाधीन छपरा आरा पुल से कुछ उम्मीद जगी है, लेकिन फिलहाल नाव से आने-जाने की व्यवस्था है. अस्पताल है ही नहीं. बाढ़ की तबाही अलग से झेलना पड़ता है. प्रत्येक साल किसानों को परवल की खेती में बाढ़ आने पर लाखों-करोड़ों रुपये का घाटा सहना पड़ता है. सुविधा के नाम पर इस गांव में पक्की सड़क तक नहीं है.

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लोक कलाकार भिखारी ठाकुर जो समाज के न्यूनतम नाई वर्ग में पैदा हुए थे, वह अपनी नाटकों, गीतों एवं अन्य कला माध्यमों से समाज के हाशिये पर रहने वाले आम लोगों की व्यथा कथा का वर्णन किए हैं. अपनी प्रसिद्ध रचना विदेशिया में जिस नारी की विरह वर्णन एवं सामाजिक प्रताड़ना का उन्होंने सजीव चित्रण किया है, वही नारी आज साहित्यकारों एवं समाज विज्ञानियों के लिए स्त्री-विमर्श के रूप में चिन्तन एवं अध्यन का केन्द्र-बिन्दु बनी हुई है. भिखारी ठाकुर ने अपने नाटकों के माध्यम से सामाजिक कुरीतियों, विषमता, भेदभाव के खिलाफ संघर्ष किया.

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इस तरह उन्होंने देश के विशाल भेजपुरी क्षेत्र में नवजागरण का संदेश फैलाया. बेमेल-विवाह, नशापान, स्त्रियों का शोषण एवं दमन, संयुक्त परिवार के विघटन एवं गरीबी के खिलाफ वे जीवनपर्यन्त विभिन्न कला माध्यमों के द्वारा संघर्ष करते रहे. यही कारण है कि इस महान कलाकार की प्रासंगिकता आज भी बनी हुई है. कभी महापंडित राहुल सांकृत्यायन के जिन्हें साहित्य का अनगढ़ हीरा एवं भोजपुरी का शेक्सपियर कहा था उस भिखारी ठाकुर का जन्म सरण जिले के छपरा जिले के सदर प्रखंड के कुतुबपुर दियारा में 18 दिसंबर 1887 को हुआ को हुआ था. उनके पिता का नाम दलश्रृंगार ठाकुर एवं माता का नाम शिवकली देवी था. भिखारी ठाकुर निरक्षर थे, परंतु उनकी साहित्य-साधना बेमिसाल थी. रोजी-रोटी कमाने के लिए वे पश्चिम बंगाल के मेदनीपुर नामक स्थान पर गए, जहां बंगाल के जातरा पाटियों के द्धारा किए जा रहे रामलीला के मंचन से वे काफी प्रभावित हुए और उससे प्रेरणा पाकर उन्होंने नाच पार्टी का गठन किए.

लोक कलाकार भिखारी ठाकुर के समस्त साहित्य का संकलन अब तक पूरा नहीं हो सका है. बिहार राष्ट्रभाषा परिषद, पटना के पूर्व निदेशक प्रो. डॉ. वीरेन्द्र नारायण यादव के प्रयास से परिषद ने रचनाओं का एक संकलन भिखारी ठाकुर ग्रंथावली के नाम से प्रकाशित किया है, परंतु अभी भी उनके लिए बहुत कुछ किए जाने बाकी हैं. विभिन्न विश्वविद्यालयों में उन पर शोध-कार्य चल रहे हैं. कई पुस्तकें भी उनसे प्रकाशित हुई हैं.