अभिभावकों के उम्‍मीदों के बोझ तले बचपन

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जयप्रकाशनगर (बलिया) से लवकुश सिंह

LAVKUSH_SINGHकार्तिक पूर्णिमा के सांथ-सांथ बाल दिवस पर भी आप खूब इन्ज्वाय किए होंगे. इसलिए हम भी चर्चा की शुरूआत बच्‍चों से ही करें. जगजाहिर है कि अभी के समय में हर अभिभावक अपने बच्‍चों के बेहतर भविष्‍य बनाने की चिंता में डूबा है. यह सही भी है कि बच्‍चे हमारे भविष्‍य, हमारी उम्‍मीदें और सपनों को साकार करने वाले हैं. यही हमारी सोंच भी है, समझ और हकीकत भी.

हम अपने जीवन में जो कुछ नहीं कर पाए, उन सभी चीजों के लिए अपने बच्‍चों के तरफ देखने लगते हैं. यहां एक पूराने गाने की वह पंक्ति-‘’ मेरा नाम करेगा रोशन जग में मेरा राज दुलारा’’ काफी सटीक लगता है. दरअसल आज के युग में हर आदमी यही सोचता भी है कि उसका बच्‍चा कुछ ऐसा करे जिससे उसका नाम रोशन हो जाए. यह तो रही अभिभावकों की बातें, किंतु एकतरफा सोचने या देखने से किसी भी तथ्‍य का सही चित्र सामने नहीं आ पाता. जरा हम गौर फरमाएं आकांक्षाओं के पहाड़ तले दबते जा रहे भोले, मासूम और निर्दोष बच्‍चों के बचपन पर. अभिभावकों के इन उम्‍मीदों के बीच उनकी दशा क्‍या है?

नन्‍हा सा बालक एक छोटी सी जान है. इस संसार के सभी चीजों की न तो उसे जानकारी है और न ही आने वाली प्रतियोगिताओं की कोई भनक. आज हर घर के हालात ये हैं कि मां के गोद में लाड़-प्‍यार से पालन-पोषण भी अभी पूरा नहीं हुआ कि स्‍कूल भेजने की तैयारी शुरू हो जाती है. आजकल ढाई से तीन साल की उम्र में ही माता-पिता अपने लाडले का नामांकन स्‍कूलों में करा देते हैं. सभी की सोच यह होती है कि बच्‍चा स्‍कूल जायेगा, पढाई करेगा, सीखेगा और तब जाकर वह होनहार बनेगा.

अपने उम्र से ज्‍यादा वजन का बस्‍ता लेकर वह स्‍कूल जाता है, स्‍कूल से आने के बाद अभिभावक पूछने लगते है कि स्‍कूल में क्‍या हुआ? होमवर्क क्‍या मिला है? खाना खाकर जल्‍दी से होमवर्क पूरा कर लो तब खेलने जाना. बाद में बच्‍चा इतना थक जाता है कि उसे अन्‍य बातों की सुध ही नहीं रह जाती. वह सो जाता है और फिर सुबह वही बातें.

हमें प्रेरणास्रोत बनना चाहिए न कि आकांक्षाओं का पहाड़

आकांक्षाओं के पहाड़ तले बच्‍चों के दबते इस बचपन के प्रति स्‍थानीय क्षेत्र के नयाबस्‍ती निवासी शिक्षक शिवदयाल यादव, गरीबा टोला निवासी योगेंद्र सिंह, शिक्षक बसंत सिंह, त्रिलोकी सिंह, शिक्षक शिवपरसन सिंह, प्रदीप सिंह, रामकुमार सिंह सहित ऐसे दर्जनों जानकारों का यह मानना हैं कि आज का परिवार एकाकी परिवार है. पति-पत्‍नी और उसके बच्‍चों का परिवार. इस परिवार में दादा, दादी, नाना, नानी का कोई स्‍थान नहीं होता. जबकि इस उम्र के बच्‍चों को इस पीढी से कुछ ज्‍यादा ही लगाव होता है. इस पीढी के मुंह से बच्‍चे नित्‍य राजकुमार, राजकुमारियां, परियां, राक्षस आदि की कहानियां सुनते थे और सोचते-सोचते सो जाते थे.

आज उसके स्‍थान पर बच्‍चों के सामने टीवी है जिसे बच्‍चे देखते तो जरूर हैं किंतु उसके स्‍पर्श से पूरी तरह वंचित रह जाते हैं. घर से लेकर स्‍कूल तक सिर्फ किताबों का माहौल, बच्‍चों के विकास को कुंठित कर देता है. बहुत उंची महत्‍वकांक्षा रखने से भी बच्‍चों में निराशा उत्‍पन्‍न होती है. जब वे उसे पूरा नहीं कर पाते, तो वे न तो अपने अभिभावक को खुश कर पाते हैं और न अपने आपको. हमें बच्‍चों से ऐसी उम्‍मीदें भी नहीं रखनी चाहिए जिससे उनमें अपराध का बोध हो. बच्‍चों के प्रति हमें प्रेरणास्रोत बनना चाहिए, न कि आकांक्षाओं का पहाड़.

स्‍कूलों में भी नहीं मिलती पल भर की आजादी

आजकल जिले के विभिन्‍न स्‍थानों पर एक से बढकर एक स्‍कूल नित्‍य खुल रहे हैं जो यह दावा करते हैं कि वे बच्‍चों के स्‍वभाविक विकास में रूची रखते हैं किंतु यहां भी वही देखा जाता है जो आम विद्यालयों में होता है. बच्‍चों के खेलकूद के समान या अन्‍य रचनात्‍मक  क्रियाविधि के उपक्रम स्‍कूलों में सिर्फ देखने के लिए होते हैं. शायद ही किसी स्‍कूल में बच्‍चों को अपने ढंग से इन वस्‍तुओं से खेलने का मौका मिलता हो. घर हो या स्‍कूल उन्‍हें कहीं भी या कभी भी सकून से खुले मन से खेलने का मौका कहां मिलता है?